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________________ २१८ उपदेश-प्रासाद - भाग १ थोड़े उत्सर्ग में सूत्र हैं, थोड़े अपवाद में सूत्र होते है और कुछ उन दोनों के सूत्र हैं, इस प्रकार श्रुत के भांगे जानें । अतः गुण विभाग को देखकर उभय पक्ष की सेवा करनी चाहिए । जो कि कहा गया है कि- उस कारण से सर्वज्ञ के द्वारा प्रवचन में सर्व निषेध नहीं किया गया हैं । लाभ की आकांक्षावालें व्यापारी के समान आय-व्यय की तुलना करें । उत्सर्ग-पक्ष तो यथाख्यात-चारित्रधारीयों का निरतिचार मार्ग है और वह सम्यक् प्रकार से सेवन नहीं किया जा सकता हैं, क्योंकि अब उस प्रकार से संहनन आदि का अभाव होने से । इसलिए अपवाद का सेवन करके भी पुनः आलोचना आदि से आत्मा को शुद्ध करना चाहिए । यह भावार्थ हैं। अब प्रथम यह राजाभियोग कहा जाता हैं - राजा के दाक्षिण्य से, बल से अथवा वाक्य से भी कुदृष्टिवालों को नमस्कार करना राजाभियोग कहा जाता हैं। इस विषय में कार्तिक-श्रेष्ठी का उदहारण हैं पृथ्वीभूषण नगर में श्रीमुनिसुव्रत जिन से धर्म को प्राप्त करनेवाला कार्तिक नामक श्रेष्ठी रहता था । एक बार मासोपवासी गैरिक तापस वहाँ पर आया । एक श्रेष्ठी के बिना सभी जन उसके भक्त हुए । वह जानकर गैरिक कार्तिक के ऊपर रुष्ट हुआ। एक बार राजा के द्वारा निमंत्रित करने पर उसने कहा कियदि कार्तिक परोसेगा तो मैं तुम्हारे गृह में पारणा करूँगा । राजा नेवैसा ही स्वीकार कर श्रेष्ठी से कहा कि- मेरे गृह में तुम गैरिक को भोजन कराओं । तब श्रेष्ठी ने कहा कि-हे राजन् ! मैं आपकी आज्ञा से भोजन कराऊँगा, राजाभियोग से इस प्रकार के आकार(आगार) से स्व व्रत को अखंड मानकर के । श्रेष्ठी के द्वारा भोजन कराये जाते हुए
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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