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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २०३ उसके मित्र और अनंगलेखा आदि क्रम से स्वर्ग और मोक्ष में जायेगें । जिनेन्द्र - मार्ग में भव में विरागता इस प्रकार से निर्वेद शब्द का अर्थ कहा गया हैं । उसके भाव रूपी सिंह को आश्रित कीये हुए हरिवाहन ने शीघ्र से सर्वार्थसिद्धि पुर को प्राप्त किया । (अथवा उस भाव रूपी सिंह को आश्रित करनेवालें वाहन ने इष्ट की सिद्धि करनेवाले सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त किया ) । इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में तैंतालीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ । चवालीसवाँ व्याख्यान अब अनुकंपा संग्रह नामक चतुर्थ लक्षण कहा जाता हैंसदा ही दीन, दुःखी और दारिद्र्य प्राप्त प्राणिओं की दुःख निवारण में वाञ्छा, वह अनुकंपा कही जाती हैं । मोक्ष के फलवाले दान में पात्र-अपात्र की विचारणा करनी चाहिए । सर्वज्ञों ने दया- दान का कहीं पर भी निषेध नहीं किया । साधु निर्गुण प्राणियों पर भी दया करतें हैं | चंद्र चांडाल के घर में से ज्योत्स्ना का संहरण नहीं करता । इस विषय में यह प्रबंध हैं - अपकारी के ऊपर भी पंडित विशेष से दया करें, जैसे किश्रीवीर ने हँसते हुए सर्प को प्रतिबोधित किया था । कनकखल नामक तापस-आश्रम में छद्मस्थ श्रीवीर - जिन चंडकौशिक सर्प को प्रतिबोधित करने के लिए आये थें । वह सर्प पूर्व भव में साधु था । वह साधु पारणे के लिए जाते समय हुई मेंढकी की विराधना की आलोचना करने के लिए क्षुल्लक के द्वारा आवश्यक में स्मरण कराया गया । क्रोध से क्षुल्लक को मारने के लिए दौड़ते हुए
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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