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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २०४ स्तंभ से टकराकर मृत हुआ और ज्योतिष्क में उत्पन्न हुआ । वहाँ से च्यवकर उस आश्रम में पाँच सो तापसों का स्वामी चंडकौशिक हुआ। वहाँ पर भी स्व- आश्रम के फल आदि को ग्रहण करनेवालें राज-कुमारों को देखकर परशु हाथ में लेकर दौड़ते हुए गड्ढे में गिरा और परशु से वींधा गया । मरकर के वहीं पर पूर्व भव के नामवाला दृष्टि विष सर्प हुआ । प्रतिमा में स्थित प्रभु को देखकर क्रोध से जलता हुआ वह सूर्य को देख-देखकर के ज्वालाओं को छोड़ने लगा । उन ज्वालाओं के विफल हो जाने पर प्रभु के पैर में डँसते हुए उसने गाय के दूध के समान सफेद भगवान के रक्त को देखा । हे चंडकौशिक ! बोधित हो, बोधित हो, इस प्रकार से उसने प्रभु के वचन को सुना । तत्क्षण ही जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त कर और प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर उसने अनशन का स्वीकार किया । विष से भरी हुई मेरी दृष्टि अन्य स्थान पर न जाय, इस प्रकार से बिल में मुख को रखकर वह स्थित हुआ। वहाँ पर घी और छास आदि का विक्रय करने के लिए जाती हुई गोपालिकाओं ने घी से उस सर्प को सिंचित किया । उससे चीटी आदि से अत्यंत पीड़ित किया ता हुआ और प्रभु-भक्ति रूपी अमृत से सिंचित वह पक्ष के अंत में सहस्रार में गया । वहाँ से शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करेगा । वैसे ही इस विषय में यह अन्य भी वार्ता हैं चौर ने अन्य रानीयों के द्वारा वस्त्र आदि से अलंकृत करने पर भी वैसे रति को प्राप्त नहीं की थी, जैसे कि छोटी रानी के द्वारा दीये गये अभय से प्राप्त की थी । वसन्तपुर में अन्य दिन चार वधूओं से युक्त अरिदमन राजा झरोखे में क्रीड़ा कर रहा था । तब पत्नीयों से युक्त उसने वध्यस्थान पर ले जाते हुए एक चोर को देखा । पत्नीयों ने पूछा - इसने
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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