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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ २०२ राजा से कहा कि- हे दुष्ट ! तुम शीघ्र ही इन स्त्रीयों की आशा को छोड़ दो । यह सुनकर के राजा विलक्ष हुआ । अब मित्र के दुःख को दूर करने के लिए वें दोनों विमान को उसके समीप में ले गये । दोनों मित्र और पत्नी को देखकर राजा प्रमुदित मनवाला हुआ । सभी ने राजा के आगे स्व-स्व वृत्तान्त कहा । राजा ने दोनों मित्रों के साथ में उन कन्याओं का विवाह कराया । एक दिन पिता इन्द्रदत्त ने स्व-पुत्र को बुलाकर और राज्य के ऊपर स्थापित कर प्रव्रज्या ग्रहण की । कितने ही दिनों के बाद में घाति कर्म-क्षय और केवल ज्ञान को प्राप्त किया । वहाँ पर देवों ने स्वर्ण सिंहासन की रचना की । तब परिवार से युक्त श्रीहरिवाहन ने मुनीश्वर को प्रणाम कर देशना सुनी - विषय रूपी मांस में लुब्ध हुए मनुष्य जगत् को शाश्वत मानतें हैं और समुद्र के तरंग के समान चपल ऐसे आयु को नहीं देखतें हैं। देशना के अंत में राजा ने मुनि-प्रभु से पूछा कि- हे स्वामी ! मेरा आयु कितना हैं ? यह सुनकर केवली ने कहा कि- हे राजन् ! तेरी आयु नव प्रहर मात्र है । इस प्रकार से सुनकर वह अंगों से काँपता हुआ मरण से डरने लगा। तब मुनि ने कहा कि- हे राजन् ! यदि तुम मृत्यु के निर्वेद से डर रहे हो तो दीक्षा का स्वीकार करो । जैसे कि ___ अंतर्मुहूर्त मात्र भी विधि से की हुई प्रव्रज्या दुःखों का अंत करती हैं, चिर काल से की हुई प्रव्रज्या के बारें में हम क्या कहें ? ___ इस प्रकार से ज्ञानी के वचन को सुनकर भव से निर्वेद को प्राप्त हुए राजा ने स्त्री और मित्रों के साथ में दीक्षा ग्रहण की । तत्पश्चात् राजर्षि शुभ-भावना को भावित करते हुए- मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं हैं, इत्यादि शुभ-ध्यान से मरकर सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में देव हुआ । वहाँ से च्यवकर वह विदेह में मोक्ष का आश्रय करेगा ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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