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________________ २०१ उपदेश-प्रासाद - भाग १ आँखों को स्थापित की हुई उसे देखकर के उन दोनों ने उस चित्र-पट्ट का अपहरण किया । अश्रुओं से युक्त नेत्रोंवाली उसने कहा कि- मैंने तेरा कौन-सा अपराध किया हैं जो चित्रित कीये हुए प्रिय का भी अपहरण कर लिया ? क्या तुम मेरी हत्या से भी नहीं डर रहे हो । उसे दुःखित देखकर पट्ट उसे वितरण कर उन दोनों ने स्व-वृत्तान्त कहा। अनंगलेखा भी भर्ती के मित्रों को जानकर कहने लगी कि-हे भद्र ! हे देवर ! तुम दोनों मुझे शोक रहित करो । उन दोनों ने मंत्रवादी का स्वरूप कर राजा से कहा कि- हे राजन् ! तुम हमारे सदृश कार्य का आदेश करो । राजा ने उन दोनों से कहा कि- हे प्राज्ञों ! तुम दोनों कंचुक की स्वामिनी स्त्री को सम्यग् प्रकार से आजन्म पर्यंत मेरी वशवर्तिनी करो । यह सुनकर के उन दोनों ने तिलक-चूर्ण दिया । राजा तिलक कर वहाँ पर गया । उन दोनों के द्वारा पूर्व में कीये हुए संकेत से अनंगलेखा ने राजा को देखकर अभ्युत्थान आदि किया । राजा ने उसे स्वाधीन मानकर के पुनःपुनः उसके देह-संग की याचना की । उसने कहा कि- हे राजन् ! मैं अष्टापद-पर्वत के ऊपर जिन को नमस्कार कर स्व-इच्छित सौख्य को साधूंगी । यह सुनकर के उस कामान्ध राजा ने चाटुकारी वाक्यों से शीघ्र से उन दोनों से प्रार्थना की और उन्होंने आकाश-गामी विमान किया ।। राजा ने उसे कहा कि-हे स्त्री ! तुम इस विमान से स्वअभिग्रह को पूर्ण कर मेरे मनोरथ को पूर्ण करो । अनंगलेखा ने कहा कि- हे राजन् ! तुम्हारें अंतःपुर से दो कन्याओं को तुम मेरे साथ भेजो; जिनके साथ में मैं वार्ता आदि सुख का अनुभव करूँ । राजा के द्वारा वैसा करने पर और पूर्व में सुतार-पुत्र तथा वणिग्-पुत्र के उस विमान में चढ़ जाने पर अनंगलेखा उन दोनों कन्याओं के साथ में विमान में चढ़ी । आकाश में थोड़ी दूर जाकर के उन दोनों मित्रों ने
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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