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________________ २०० उपदेश-प्रासाद - भाग १ स्त्री को लाकर के मेरे राजा को दो । देवी ने भी कहा कि- हे मंत्री ! यदि सूर्य पश्चिम में उदय होता है और चंद्र अंगार को छोड़े, तो भी प्राणांत में भी वह सती शील का लोप नहीं करेगी । फिर भी तेरा स्वामी कदाग्रह को नहीं छोड़ता, तो मैं उसे लाकर के देती हूँ। फिर से भी तुम मेरा स्मरण मत करना । इस प्रकार से कहकर और सहसा ही वहाँ जाकर के उसका अपहरण कर राजा के आगे रखकर वह तिरोहित हुई। राजा उसे आयी जानकर अनेक प्रकार से प्रार्थना करने लगा। उसे सुनकर स्त्री ने कहा कि- हे राजन् ! मैं प्राणान्त में भी शील का खंडन नहीं करूँगी । उसे सुनकर राजा ने विचारा कि- स्वभाव से ही स्त्रीयों के मुख में न-कार होता हैं, परंतु यह मेरे आधीन ही है, इसलिए ही धृष्ट के चित्त को धीरे से प्रसन्न करना चाहिए । जैसे कि सहसा ही कार्य न करें, अविवेक परम-आपदाओं का स्थान हैं। गुण में लुब्ध हुई संपदाएँ स्वयं ही विचार कर करनेवालेंका वरण करती हैं। प्रतिदिन रानी हृदय में पति का ही स्मरण कर रही थी। इस ओर पूर्व में गज से भय-भीत हुए और अरण्य के अंदर भ्रमण करते हुए सुतार-पुत्र और श्रेष्ठी के पुत्र उन दोनों ने बाँस के कुंज के मध्य में रहे हुए मंत्र साधक को देखा । साहसिक नर-युगल को देखकर साधक ने भी कहा कि- हे कुमारों! तुम दोनों मेरे उत्तरसाधक बनो, जिससे कि मेरे कार्य की सिद्धि हो । उन दोनों के हाँ कहने पर साधक ने विद्या को साधी । साधक ने विद्या की सिद्धि होने पर उन दोनों को अदृश्य-अंजन, शत्रु-सैन्य मोहिनी और विमानकारिका विद्याएँ दी । भ्रमण करते हुए उन दोनों ने बेनातट को प्राप्त किया । वहाँ पर लोगों के मुख से स्व मित्र राजा को शोक सहित सुनकर, उसके विरह को दूर करने के लिए अंजन कर और अनंगलेखा के समीप में आकर के पट के ऊपर चित्रित कीये हुए अपने प्रिय के प्रतिबिंब में
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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