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________________ १६६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ विवाह की सामग्री को लेने गया हुआ हैं । आज वह अपने आवास में आकर बल से मुझसे विवाह करेगा । परंतु पूर्व में ज्ञानी ने मुझे इस प्रकार से कहा था कि- हे वत्से ! तेरा प्रिय हरिवाहन होगा । उन मुनि के वचन के विसंवाद से मुझे खेद हुआ हैं । उसे सुनकर कुमार ने कहा कि- हे स्त्री ! खेद मत करो। इस ओर वह विद्याधर आ गया। विद्याधर उसके साथ क्रोध से युद्ध करने लगा । कुमार ने भी जगत् को जीतनेवाली तलवार से उसे जीत लिया । तब विद्याधर ने कहा कि- हे साहसिक-श्रेष्ठ ! यह स्त्री और यह नगर तेरे आधीन है, उसे तुम सुख से भोगो, मैं स्वस्थान पर जा रहा हूँ। हरिवाहन ने उस कन्या को वह दिव्य-कंचुक देकर और अनेक जनों से आकुलित नगर बसा कर साम्राज्य का पालन करने लगा। ___एक बार राजा नर्मदा के तट के पर शुभ वस्त्रों को छोड़कर प्रिया के साथ में जल-क्रीड़ा कर रहा था । इस ओर मत्स्य ने पद्मराग कान्ति से युक्त उस दिव्य कंचुक वस्त्र को नदी के तट से मांस की भ्रान्ति से निगल लिया । उसे देखकर राजा आदि ने शोक को धारण किया । वहाँ से वह मत्स्य बेनातट में आया। किसी मछुआरे ने मत्स्य का विदारण किया और उसके उदर से वह कंचुक निकला । मछुआरे ने अपने राजा को उस कंचुक को भेंट किया । राजा ने सोचा कि- विश्व को मोहित करनेवाली यह स्त्री कौन हैं ? जिसका यह कंचुक भी मेरे मन को हरण कर रहा हैं । वह कब और किस उपाय से मुझे मिलेगी ? इस प्रकार से चिन्ता से पीडित राजा ने स्व-मंत्री से कहा कि- यदि हमारे जीवन से प्रयोजन हैं तो सात दिन के मध्य में उस स्त्री की शुद्धि ले आओ। .. मंत्री ने राजेश्वरी देवी की आराधना की । देवी ने प्रकट होकर कहा कि- तुम वर माँगों । उसने कहा कि- तुम कंचुक की स्वामीनी
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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