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________________ उपदेश-प्रासाद १६८ भाग १ यक्ष के आगे रणन् शब्द करती हुई मणि- नूपुर से युक्त अप्सराएँ आकर के नाचने लगी। वें अप्सराएँ नृत्य- श्रम का नाश करने के लिए बहुमूल्य वस्त्रों को छोड़कर सरोवर में स्वेच्छा से स्नान करने में प्रवृत्त हुई। उतने में ही वह राज - पुत्र द्वार को उद्घाटित कर और उनके वस्त्रों को लेकर तथा पुनः द्वार को बंध कर स्थित हुआ । तब वें अप्सराएँ अपने वस्त्रों को नहीं देखती हुई परस्पर कहने लगी किनिश्चय ही किसी धूर्त्त ने हमारें वस्त्रों का अपहरण किया हैं । परंतु वह हम से भी नहीं डर रहा है, इसलिए यह दंड से साधा नहीं जा सकता, इस प्रकार से कहकर वें साम वाक्यों से उसे प्रलोभित कर कहने लगी कि - हे नराग्रणी ! तुम हमारें वस्त्रों को समर्पित करो । उसने भी कहा कि- तुम्हारें वस्त्रों को लेकर बड़ा वायु आगे चला गया होगा, उससे तुम उसके समीप में जाओ, जाओ । 1 — 1 राज-पुत्र के साहस से संतुष्ट हुई उन अप्सराओं ने कहा किहे वत्स ! तुम इस खड्ग-रत्न और दिव्य-कंचुक को ग्रहण करो । उसने द्वार को खोलकर और वस्त्र देकर क्षमा माँगी । देवियाँ उन दोनों वस्तु को देकर स्व-स्थान पर चली गयी । कुमार ने मार्ग में जाते हुए एक शून्य नगर को देखा । वहाँ कौतुक से राज-महल में सातवीं भूमि में गया । वहाँ पर कमल समान नेत्रवाली एक कन्या देखी । जैसे कि 1 क्या विधाता ने इस प्रथम सृष्टि को सुरक्षित रखा हैं, जिससे कि इस कन्या को देखकर मैं अन्य नारीयों का निर्माण करता हूँ । इस प्रकार से सोचकर वह उसके द्वारा दीये हुए आसन के ऊपर बैठा और शोक से युक्त उस कन्या को देखकर शोक का कारण पूछा । उसने भी कहा कि - हे भाग्यशाली ! मैं विजय राजा की अनंगलेखा नामक पुत्री हूँ। एक बार विद्याधर गवाक्ष में बैठी हुई मुझे देखकर और अपहरण कर यहाँ पर नगर में निवेशित किया । अब वह
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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