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उपदेश-प्रासाद - भाग १
सैंतालीसवाँ व्याख्यान अब तृतीय निर्वेद नामक लक्षण कहा जाता हैं
संसार रूपी कारावास के विवर्जन में परायण प्रज्ञा जिसके चित्त में होती हैं, वह निर्वेदवान् पुरुष हैं।
जैसे कि प्रवचन में कहा गया है कि- हे भगवन् ! जीव निर्वेद से क्या उत्पन्न करता हैं ? जीव निर्वेद से दिव्य-मनुष्य और तिर्यंच संबंधी काम-भोगों से विरागी होता हुआ शीघ्र से निर्वेद में आता हैं
और सर्व विषयों में विरागी होता है । वह सर्व विषयों में विरागी होता हुआ आरंभ और परिग्रह का त्याग करता हैं। आरंभ और परिग्रह का त्याग करता हुआ संसार-मार्ग का व्युच्छेदन करता हैं और सिद्धिमार्ग का स्वीकार करता हैं । इस विषय में हरिवाहन का प्रबन्ध हैं
भोगावती नगरी में इन्द्रदत्त राजा था और उसका पुत्र हरिवाहन था । उसे सुतार-पुत्र और श्रेष्ठी का पुत्र इस प्रकार से दो मित्र थे । उन दोनों के साथ में स्वेच्छा से क्रीड़ा करते हुए पुत्र को राजा ने दुर्वचन से तिरस्कार किया । कुमार ने उस दुःख से पिता आदि के स्नेह को छोड़कर अपने दोनों मित्रों के साथ में प्रस्थान किया । उन तीनों ने भी किसी अरण्य में सूंड को उठाकर संमुख आते हुए मत्त हाथी को देखा । उतने में ही सुतार का पुत्र और वणिक्का पुत्र कौओ के भागने के समान भाग गये । राज-पुत्र सिंह-नाद से उस हाथी को चेष्टा रहित कर मित्रों की गवेषणा करने के लिए आगे चला । परंतु कहीं पर भी उनकी शुद्धि को प्राप्त नहीं की।
राज-पुत्र ने इधर-उधर पर्यटन करते हुए एक सुंदर सरोवर को देखा । उसमें स्नान कर उस सरोवर से उत्तर-दिशा में बड़े उद्यान में प्रवेश किया । वहाँ उद्यान के अंदर सरोवर से व्याप्त दरवाजेवाले यक्ष के मंदिर में रात्रि के समय में सो गया । राज-पुत्र के सो जाने पर