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उपदेश-प्रासाद - भाग १
- १६६ प्रतिपालन कर अखिल अष्ट-कर्मों को नष्ट कर अनंत सौख्यवालें निर्वाण को प्राप्त करता हैं । उस श्रमण के वाक्य को सुनकर श्रेणिक राजा अत्यंत तुष्ट हुआ और अंजलि को जोड़कर कहने लगा कि- हे मुनि ! आपने मेरे आगे सत्य नाथत्व कहा हैं । हे मुनि ! आपको मनुष्य जन्म सम्यग् प्राप्त हुआ और आपको जगत् में उत्तम लाभ प्राप्त हुआ हैं। आप ही स-नाथ और बांधव सहित हो, जो जिन-पुंगवों के मार्ग में स्थित हो । हे मुनि ! आज के बाद आप ही अनाथ ऐसे स्थावरजंगम प्राणियों के नाथ हुए हो । इसलिए ही हे साधु ! आप से मैं मेरे अपराध को शीघ्र नष्ट करने के लिए क्षमा माँग रहा हूँ। जो मेरे द्वारा पूछकर के आपके ध्यान विघ्नकारी दूषण को किया गया और भोगों में निमंत्रित कीये गये, मेरे उस समस्त दूषण को भी आप क्षमा करे।
इस प्रकार से स्व-भक्ति से उस अणगार की स्तुति कर, सर्व राजाओं में चन्द्र के समान, अंतःपुर के साथ सत्-परिवार से युक्त और धर्म में अनुरागी हुआ श्रीश्रेणिक स्व-नगर में गया।
अमित गुण श्रेणि से समृद्ध जो वे निर्ग्रन्थ मुनीश्वर थें, वें पक्षी के समान प्रतिबंध और बंधन से रहित पृथ्वी के ऊपर विहार करते हुए और गुप्तियों से गुप्त, उग्र दंड से विरत, संवेग से मोह आदि को नष्ट कर क्रम से अव्यय सौख्यवाले महोदय-पद को प्राप्त किया।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में बेतालिसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।