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उपदेश-प्रासाद - भाग १ को नही जानते हो । तुम सुनो, जैसे कि
कौशाम्बी में महीपाल नामक राजा मेरे पिता थें । एक दिन प्रथम वय में ही मुझे आँख की वेदना हुई । मेरे सर्वशरीर में दाह हुआ। उस वेदना को दूर करने के लिए मंत्र के जानकार और वैद्य आदि निज-निज उपायों को करने लगें । तो भी वेदना से छुड़ाने के लिए वें समर्थ नहीं हुए, जैसे कि
पिता मेरे लिए पर्याप्त और सर्व गृह-सार को दे रहे थे, वे भी दुःख से मुझे छुड़ा नहीं सके, यह मेरी अनाथता । पिता, माता, भाईबहन, पत्नी आदि मेरे पास में स्थित रो रहे थे, भोजन नहीं कर रहे थे, क्षण-भर के लिए भी मेरे सामीप्य को नहीं छोड़ रहे थे, परंतु मुझे दुःख से छुड़ा नहीं सके, यह मेरी अनाथता । पश्चात् मैंने इस प्रकार से सोचा कि- अनादि संसार में कैसे पुनः मेरे द्वारा यह वेदना सहन की जायगी ? इसलिए जो एक क्षण के लिए भी वेदना से निस्तार हो तो मैं मुनित्व को ग्रहण करूँ । हे राजन् ! इस प्रकार से सोचकर मेरे सो जाने पर वेदना क्षय को प्राप्त हुई । उससे आत्मा ही योग-क्षेम करनेवाली और नाथ हैं । सुबह स्व-जनों को प्रतिबोधित कर मैंने अणगारत्व को ग्रहण किया। उससे मैं स्व का और दूसरें त्रस आदियों का नाथ हुआ । क्योंकि आत्मा ही योग-क्षेम करनेवाला और नाथ हैं । हे राजन् ! वैसे ही तुम अन्य अनाथता के बारे में भी सुनो
जो प्रव्रज्या को लेकर प्रचुर प्रमाद से पाँच महाव्रतों का पालन नही करते हैं, रसों में गृद्ध और इंद्रियों को नहीं जीतनेवाले वें ही जिनों के द्वारा अनाथ कहें गये हैं। प्रान्त में जो अत्यंत विपर्यास को प्राप्त होता हैं, उसकी सुसाधुता निरर्थक हैं । उसका केवल इहलोक ही नष्ट नहीं होता, किंतु अपर भव विनष्ट हो चुका हैं । चारित्र के गुणों से युक्त होता हुआ साधु आत्मा की शुद्धि से निराश्रव संयम का