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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ १६४ बयालीसवा व्याख्यान अब द्वितीय संवेग-लक्षण कहा जाता हैं देव आदि विषय सुख को दुःखत्व से अनुमान करता हुआ और मोक्ष की अभिलाषा तथा संवेग से युक्त वह दर्शनी होता हैं। इस विषय में निर्ग्रन्थ (अनाथी) मुनि का प्रबन्ध है एक बार राजगृह के उपवन में क्रीड़ा करते हुए मगध के स्वामी ने सुकुमार अंगवालें, समाधि में लीन और विश्व को विस्मय करनेवाले रूप से युक्त एक मुनि को देखा । अहो ! इन मुनि का रूप, अहो ! लावण्य-वर्ण, अहो ! सौम्यता, अहो ! शांति, अहो ! भोगों में असंगता । इस प्रकार से कहकर ध्यान में लीन उस मुनि को देखकर राजा मुनि के पाद-कमल में प्रणाम कर इस प्रकार से पूछने लगा कि- हे आर्य ! यौवन में भी ऐसे दुष्कर व्रत को ग्रहण किया हैं। उसका कारण कहो। ___ मुनि ने कहा कि- हे महाराज ! मैं अनाथ हूँ, मेरा स्वामी नहीं हैं । अनुकंपा करनेवाले के अभाव से तारुण्य में भी व्रत को आदरित किया हैं। __ श्रेणिक ने हँसकर कहा कि- हे साधु ! इस वर्ण आदि से आपकी अनाथता युक्त नहीं हैं, तो भी मैं आप अनाथ का नाथ होता हूँ । यथेच्छा से भोगों को भोगों और साम्राज्य का परिपालन करो, क्योंकि फिर से भी यह मनुष्य-जन्म अतीव दुर्लभ हैं। मुनि ने कहा कि- हे राजन् ! तुम अपने आपके भी नाथ नहीं हो तो कैसे मेरे नाथ होओगे ? पूर्व में नहीं सुने हुए को सुनकर राजा ने कहा कि- हे मुनि ! आपको इस प्रकार से कहना योग्य नहीं हैं, क्योंकि मैं हाथी, अश्व, रथ, रानी वर्ग का पालन कर रहा हूँ । ऋषि ने भी थोड़ा हँसकर कहा कि- हे राजन् ! तुम अनाथ-सनाथ के अर्थ
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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