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________________ १६३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ एक बार शासन-देवी ने आकर के कूरगडुक मुनि को नमस्कार किया । अनेक प्रकार से स्तुति कर उसने सर्व साधुओं के समक्ष में कहा कि- इस गच्छ में आज के दिन से आगामी सप्तम दिन में एक मुनि प्रथम केवलज्ञान को प्राप्त करेंगें । तब उन साधुओं ने कहा कि- हे देवी ! हमारा अतिक्रमण कर तुमने इसे कैसे वंदन किया है ? उसने कहा कि - मैंने भाव-तपस्वी को वंदन किया है, इस प्रकार से कहकर वह चली गयी । साँतवें दिन शुद्ध अन्न को लाकर कूरगडु ने गुरु को और उन तपस्वीओं को दिखाया । तब क्रोध से जलते हुए तपस्वीओं के मुख में श्लेष्म आ गया। उन्होंने अन्न में डाला । तब कूरगडु ने सोचा कि- सदा स्वलप तप-कर्म से रहित मुझ प्रमादी को धिक्कार हो । मैं इनकी वैयावच्च करने के लिए भी समर्थ नहीं हूँ। इत्यादि आत्म निन्दा करते हुए और निःशंकता से उस अन्न को ग्रहण करते हुए शुक्ल-ध्यान में लीन कूरगडु ने केवलज्ञान को प्राप्त किया। तब देवों ने महिमा की। अब वेंसाधु विचारने लगें कि- अहो ! यह सत्य भाव तपस्वी हैं और हम द्रव्य तपस्वी हैं । इस प्रकार से विचारकर उन चारों ने भी केवली से क्षमा माँगी । इस प्रकार त्रिकरण की विशुद्धि से क्षमा माँगनेवाले उनको भी चरम ज्ञान(केवलज्ञान) उत्पन्न हुआ। क्रम से पाँचों ने भी मोक्ष-नगर को प्राप्त किया । सूत्र में शान्ति, क्षमा, क्षान्ति, शम आदि के नाम से सम्यक्त्व का प्रथम लक्षण स्तुति किया गया हैं । शम गुण धर्मों में आद्य हैं और अंतिम ज्ञान को देता हैं, उससे शम-गुण स्वीकार किया जाय । इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में एकतालीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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