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उपदेश-प्रासाद
भाग १
प्राप्त हुआ । उससे सर्पों के ऊपर क्रोध को वहन करते हुए राजा सर्पों की हिंसा कराने लगा । जो कोई सर्प की हिंसा कर ले आता था, राजा उसे दीनार देता था । तब सब लोग सर्प - आकर्षक विद्या को पढ़ने लगें ।
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एक बार किसी ने उस बिल के समीप में उस विद्या को पढ़ी। उससे वहाँ रहने में असमर्थ हुए सर्प ने सोचा कि - मुझे देखकर जीव न मरें, इस प्रकार से विचार कर उसने पूंछ बाहर की । हिंसकों ने पूंछ को छेद दी । इस प्रकार सर्प के भी टुकड़ें करनें लगें । सर्प ने सोचा किहे जीव ! देह के बहाने से यह तेरा दुष्कर्म खंडित किया जा रहा है, तुम इस व्यथा को सहन करो, भविष्य में कल्याण होगा ।
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वह सर्प कुंभ राजा की पत्नी की कुक्षि में अवतीर्ण हुआ । नागदेव ने राजा को स्वप्न दिया कि - आज के बाद तुम सर्प-घात मत करो । तुझे पुत्र होगा । पश्चात् राजा को पुत्र हुआ । उस पुत्र का नागदत्त नाम दिया । क्रम से उसने यौवन को प्राप्त किया । एक बार गवाक्ष में स्थित उसने एक मुनि को देखकर जाति-स्मरण ज्ञान प्राप्त कर और वैराग्य से कैसे भी पिता की अनुज्ञा को ग्रहण कर गुरु के समीप में दीक्षा ग्रहण की। तिर्यंच योनि से आने से और क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से पोरसी पच्चक्खाण भी नहीं हो रहा था । तब गुरु ने कहा कि- तुम क्षमा धर्म को अंगीकार करो, उससे तुम सर्व प्रकार के तप फल को प्राप्त करोगे । वें मुनि प्रातःकाल में ही गडुक मित अन्न का आहार करते थें, उससे लोक में उनका नाम कूरगडुक हुआ । उस गच्छ में चार तपस्वी साधु थे, एक मास-उपवासी, द्वितीय दो मास के उपवासी, तृतीय तीन मास के उपवासी और चौथे चार मास के उपवासी । यह नित्य भोजन करनेवाला हैं इस प्रकार से वें सभी साधु करगडुक की निन्दा करतें थें ।