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उपदेश-प्रासाद - भाग १
इकतालीसवाँ व्याख्यान अब सम्यक्त्व के पाँच अधिकार स्पष्ट कीये जाते हैं
बड़े अपकार के होने पर भी शमों से क्रोध आदि को शांत करता हैं, उससे सम्यक्त्व पहचाना जाता हैं और वह आद्य लक्षण
इस विषय में कूरगडुक मुनि का प्रबन्ध हैं और वह इस प्रकार
विशाला में एक आचार्य के शिष्य मासक्षमण के पारणे में एक क्षुल्लक के साथ बाहर-भूमि में जाते हुए प्रमाद से मेंढकी पैरों से मारी गयी । तब उसे देखकर क्षुल्लक ने मौन रखा । तपस्वी ने प्रतिक्रमण में उस पाप की आलोचना नहीं की । तब क्षुल्लक ने कहा कि- अहो ! हे तपस्वी ! आप त्रि-शुद्धि से उस पाप की आलोचना क्यों नहीं कर रहे हो ? उसने सोचा कि- यह दुरात्मा साधु के समक्ष मेरी निन्दा कर रहा हैं, उससे मैं इसे मारूँ, इस प्रकार से विचारकर क्षुल्लक को मारने के लिए दौडा । क्रोधान्ध हुआ वह मध्य में स्तंभ से टकराकर मृत्यु को प्राप्त हुआ । व्रत की विराधना करने से वह ज्योतिष्क देव हुआ । ज्योतिष्क से च्यवकर वह दृष्टि विष सर्प के कुल में देवाधिष्ठित सर्प हुआ । पाप की आलोचना नहीं करने से और जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न होने से उस कुल में अन्य सभी सर्प आहार-शुद्धि कर रहे थे । उसे देखकर यह भी मुनि-भव में की हुई गवेषणा का स्मरण करने लगा । उससे जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । मेरी दृष्टि से प्राणी भस्मसात् न हो, इस प्रकार से वह दिन में बिल से बाहर नहीं निकलता था । रात्रि में भी प्रासुक पवन का ही अशन करता था ।
इस ओर सर्प के द्वारा डंसा गया कुंभ राजा का पुत्र मृत्यु को