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उपदेश-प्रासाद
भाग १
१६०
एक दिन वें ही मुनि वहाँ पर आये । मुनि ने गोवालिये के द्वारा गायें जाते हुए श्लोक - खंड को सुना । क्षण भर विचारकर उसके उत्तरार्ध को जानकर उसे पूर्ण किया, जैसे कि - हहा ! जिसने क्रोध से इनको मारा हैं, उसकी दशा क्या होगी ? गोपालक उसे सुनकर उस पूर्ण श्लोक को राजा से निवेदन किया । मैंने इस समस्या को पूर्ण की हैं, इस प्रकार उसने धैर्य से कहा । राजा का मन विस्मित नहीं हुआ और उसने निर्बंध होने पर सत्य कहा । उसे सुनकर और वहाँ जाकर
राजा ने मुनि से क्षमा माँगी । परस्पर स्व-स्व अपराध की निन्दा और गर्हा करते हुए, राजा और मुनि उन दोनों ने चिर समय तक प्रीति से वार्त्ता की ।
इसी बीच वहाँ पर कोई केवली आये। राजा और मुनि दोनों ने अच्छी प्रकार से उन केवली के आगे निज-निज स्वरूप को कहा । केवली ने कहा कि- तुम दोनों का पाप शत्रुंजय के बिना अति-तपों के द्वारा नहीं जायगा । यह सुनकर शत्रुंजय आदि तीर्थ-यात्रा कर, भाव से संयम को ग्रहण कर और हत्या आदि पापों को नष्ट कर दोनों शत्रुंजय - पर्वत के ऊपर सिद्धि को प्राप्त की ।
भव्य प्राणियों ! नित्य कान से अन्तिम भूषण ऐसे तीर्थसेवा की प्रशंसा को सुनकर और कुविकल्प के जाल को छोड़कर शुभ तीर्थ की सेवा करो ।
इस प्रकार उपदेश - प्रासाद में तृतीय स्तंभ में चालीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ ।
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