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उपदेश-प्रासाद - भाग १ तब मुनि ने अहिंसा धर्म का वर्णन किया । उसे सुनकर राजा ने इस प्रकार से विचार किया कि- अहो ! मैंने जो रहस्य में पाप किया था, उसे इन्होंने जान लिया हैं। इसलिए उस पाप को दूर करने के लिए मैं ऐसे ज्ञानी के समीप में दीक्षा ग्रहण करता हूँ। तब तृण के समान राज्य-भार को छोड़कर अणगार हुआ । क्रम से दुष्कर तपों के द्वारा उत्पन्न हुई तेजो-लेश्या से युक्त वें पृथ्वी के ऊपर विहार करने लगे।
वह पक्षी भी मरकर भील हुआ । विहार करते हुए उस मुनि को देखकर क्रोधित होकर उसने लकड़ी आदि से मुनि को मारा । भिक्षु भी अपने अनाचार का विस्मरण कर लेश्या से उसे जला दिया । भील भी मरकर किसी वन में सिंह हुआ । वहाँ भी ऋषि ने पूंछ को पछाड़ते हुए उस सिंह को मार दिया । तत्पश्चात् हाथी हुआ, उसे भी मार दिया । पश्चात् साँड हुआ । संमुख दौडने से उस साँड को मार दिया । तथा स्व देह में डंसते हुए सर्प को पूर्व के समान ही साधु ने उसे मारा । उसके बाद वह ब्राह्मण हुआ । साधुने निन्दा करते हुए उस ब्राह्मण को मार दिया । अहो ! निर्विवेकी को कहाँ से संवर हो ? निर्मम
और योगीश्वर भी इसने सात हत्याएँ की थी, इस प्रकार से पाप कर्मों के विलास को धिक्कार हो ? यथा प्रवृत्ति करण से शुभ कर्मोदय के संमुख वह ब्राह्मण वाणारसी नगरी में महाबाहु राजा हुआ ।
एक दिन गवाक्ष में रहे हुए उस राजा ने किसी मुनि को देखकर जाति-स्मरण ज्ञान से सात भवों को जानें । अहो ! मैं उस मुनि के पाप का हेतु हुआ हूँ, इस प्रकार विचारकर उस मुनि को जानने के लिए श्लोकार्ध किया कि- पक्षी, भील, सिंह, हाथी, साँढ, सर्प और ब्राह्मण, जो अन्त्य अर्ध को पूर्ण करेगा उसे लक्ष स्वर्ण-मुद्राएँ दी जायेगी, इस प्रकार से उद्घोषणा की । सभी लोग उस श्लोक को पढने लगें । परंतु कोई भी श्लोकार्ध को पूर्ण नहीं कर सका था ।