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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ १८८ को देकर इस प्रकार से कहा कि - हे वत्स ! खुद के समान विधि से सभी तीर्थों में इस तुंबिका को भी स्नान कराना, तुम यह मेरा कहा हुआ अवश्य करना । उसे अंगीकार कर यथा रुचि तीर्थों में जाकर और माता का कहा कर मस्तक से मंडित हुआ और बहुत मुद्राओं से अंकित भुजा - दंडवाला वह स्व नगर में आया । विनय से माता के पैरों को नमस्कार कर और तुंबिका के व्यतिकर को कहकर भोजन करने के लिए बैठे हुए उसकी थाली में उस तुंबिका का साग कर माता ने परोसा । वह भी उस साग का आस्वादन कर कहने लगा कि - यह नहीं खाने योग्य कटु और विष के समान हैं । माता ने उसे कहा कि - हे पुत्र ! अनेक तीर्थों के जल से जो तुंबिका स्नान करायी गयी, उसके साग में भी कटुत्व कहाँ से ? उसने कहा कि - हे माता ! जल से स्नान कराये गये इस तुंबिका का आन्तर कटुत्व कैसे जा सकता हैं ? माता ने कहा कि - हे भद्र ! यदि इसका कटुत्व का दोष नहीं गया है, तो हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन आदि से उत्पन्न हुए और आत्मा के ऊपर लगे हुए आंतरिक पाप-समूह रूपी मल जल-स्नान से कैसे जा सकता है ? इस प्रकार से माता के द्वारा कहे हुए सत्य को मानकर गोविंद माता के साथ सुगुरु के समीप में जाकर श्रावकत्व का अंगीकार कर क्रम से शत्रुंजय तीर्थ के ऊपर सिद्धि सुख को प्राप्त किया । अन्य भी प्रबन्ध कहा जाता हैं श्रावस्ती में त्रिविक्रम राजा था । एक दिन वन में उसने घोंसले के निवासी और कटु रटन करते पक्षी को देखकर दुष्ट शकुन की बुद्धि से उसे शीघ्र ही मारा । भूमि के ऊपर गिरे हु और काँपते उस पक्षी को देखकर वह पश्चात्ताप से युक्त हुआ । आगे जाते हुए उसने महर्षि को देखकर प्रणाम किया और उनके आगे स्थित हुआ ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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