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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ चालीसवाँ व्याख्यान १८७ अब पाँचवाँ भूषण कहा जाता हैं तीर्थों की सतत सेवा, संविग्न चित्तवालों का संग उसे तीर्थसेवा कही गयी हैं, वह पंचम सम्यक्त्व का भूषण हैं । | संसार रूपी सागर जिससे तीरा जाता है उसे तीर्थ कहतें हैं । श्रीमान् शत्रुंजय, अष्टापद पर्वत आदि तीर्थ हैं । उसकी नित्य सेवना - निरंतर यात्रा करण, यह शेष है । संविग्न चित्तवालें साधुओं का संग संगति, जैसे कि 1 साधुओं का दर्शन पुण्य रूप हैं और साधु तीर्थ स्वरूप हैं । काल से तीर्थ फलित होता हैं किन्तु साधु पद-पद पर फलदायी होते हैं। इस प्रकार सूत्रों में कहा गया हैं । इसलिए सुतीर्थ का सेवन बड़े गुण के लिए समर्थ होता हैं न कि अप्रशस्त तीर्थ का सेवन । इस विषय में यह प्रबंध है दुरन्त पापों से प्रलिप्स हुए जीव प्रशंसनीय तीर्थों से निर्मल नहीं होते हैं, जैसे कि माता के वचनों से पुत्र के द्वारा सुतीर्थो में तुंबिका स्नान करायी गयी भी मधुर नहीं हुई । विष्णु स्थल में परम - आर्हती गोमती सार्थवाही । उसका गोविन्द नामक पुत्र गाढ मिथ्यादृष्टि था । माता के द्वारा जैन-धर्म में प्रतिबोधित किया गया भी उसने मिथ्यात्व को नही छोड़ा । एक बार तीर्थ यात्रा में तैयार उसे माता ने कहा कि - हे वत्स ! लौकिक तीर्थ गंगा, गोदावरी, त्रिवेणी संगम और प्रयाग से तथा जल, दर्भ आदि के स्नान से हिंसा, असत्य और चोरी आदि से उत्पन्न आत्मा की मलिनता नहीं जाती, इत्यादि बहुत शिक्षित करने पर भी जब यह निवृत्त नहीं हुआ, तब उसके बोध के लिए एक कटु तुंबिका
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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