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उपदेश-प्रासाद भाग १
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करूँगा । धन्य मानता हुआ मैं स्वयं ही शेष रहे हुए अन्न आदि का भोजन करूँगा । इस प्रकार के मनोरथ की श्रेणि में चढ़े हुए उसने बारहवें स्वर्ग के योग्य कर्म का अर्जन किया ।
इस ओर श्रीवीर अभिनव श्रेष्ठी के गृह में भिक्षा के लिए गये। भोजन वेला के अतिक्रान्त हो जाने से उसने उडदबाकुले दिलाएँ । उस दान से पाँच दिव्य हुए। जीर्णश्रेष्ठी दुंदुभि की ध्वनि को सुनकर सोचने लगा कि मुझे धिक्कार हो, मैं अधन्य हूँ जो प्रभु मेरे गृह में नहीं आये, इस प्रकार से उसे ध्यान-भंग हुआ ।
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एक बार राजा ने किसी ज्ञानी मुनि के आगे कहा कि - हे भगवन् ! मेरा नगर धन्य हैं जहाँ पर श्रीवीर को पारणा करानेवाला और भाग्यवान् अभिनव श्रेष्ठी रह रहा हैं । तब मुनि ने कहा कि - तुम इस प्रकार से मत कहो । उसने द्रव्य - भक्ति की हैं । परंतु जीर्णश्रेष्ठी ने भावना से भक्ति की हैं। इसलिए वह ही पुण्यवान् हैं । अन्य यह भी है कि- यदि इसने तब देव दुंदुभि को नहीं सुनी होती, तो तभी उज्ज्वल केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता । इस प्रकार से गुरु- वाक्य से देव- गुरु की भक्ति में आदर से युक्त राजा आदि स्व स्थान पर चलें गये ।
व्यापारियों में श्रेष्ठ और जिनों में भक्तिमंत चित्तवाला जीर्णश्रेष्ठी बारहवें कल्प को भोग कर क्रम से मोक्ष में जायगा । इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में उन्चालिसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ ।