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उपदेश-प्रासाद भाग १
यह उपनय हैं
जैसे सुंदर स्त्री ने उस परिव्राजक के ऊपर इस महान् अनुराग को किया था, वैसे ही मोक्ष के प्रकटीकरण के लिए जिनों द्वारा उपदेशित धर्म में अनुराग करो ।
इस विषय में अन्य जीर्णश्रेष्ठी का प्रबंध कहा जाता हैंतीनों समय जिनेश्वर की भक्ति से जीर्ण नामक श्रेष्ठी के समान परोक्ष में भी ध्यान कीये गये जिनेश्वर इष्ट की सिद्धि के लिए होते हैं । नदी की वृद्धि के लिए और कमल - समूह रूपी लक्ष्मी की संतुष्टि के लिए भी मेघ और चन्द्र होते हैं ।
विशाला के वन में चतुर्मासी तप करनेवाले श्रीवीर भगवान प्रतिमा से स्थित थें । उस नगर के जीर्णश्रेष्ठी ने वहाँ पर प्रभु को देखकर विज्ञप्ति की कि - हे स्वामी ! आज मेरे गृह में पारणा करे, इस प्रकार से कह कर वह चला गया । परंतु प्रभु नहीं आये । छट्ठ तप का विचार कर द्वितीय दिन उसने जगत् के बन्धु को नमस्कार कर कहा कि- हे कृपावतार ! आज मेरे गृह को और मुझे पवित्र करे । तब स्वामी मौन से रहें । इस प्रकार से प्रति-दिन आकर जिनेश्वर को निमंत्रित करता था ।
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चतुर्मासी के अंत में उसने सोचा कि - आज अवश्य ही जिन का पारणा का दिन हैं। उसने कहा कि- हे दुर्वार संसार रूपी रोग के लिए धन्वन्तरि के तुल्य । कृपा से युक्त नेत्रों से मुझे देखकर आप मेरी प्रार्थना को मन में अवधारण करो, इस प्रकार से स्तुति कर गृह में चला गया । मध्याह्न के समय में थाली में मोतियों को ग्रहण बधाई देने के लिए गृह-द्वार पर खड़ा हुआ इस प्रकार से सोचने लगा कियहाँ पर आनेवालें विश्व के बंधु को मैं परिवार सहित वंदन करूँगा । पश्चात् गृह के अंदर ले आऊँगा और श्रेष्ठ अन्न-पानों से प्रतिलाभित