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उपदेश-प्रासाद
भाग १
उन्चालीसवाँ व्याख्यान
अब चतुर्थ भूषण कहा जाता है
जो यथा-योग्य अर्हत् परमात्मादि की आन्तरिक भक्ति होती है, वह सम्यक्त्व गुण का द्योतक चतुर्थ अलंकार हैं । भावार्थ एक स्त्री के दृष्टांत से स्पष्ट किया जाता हैं
राजपुर में अमिततेजा नामक राजा था । वहाँ पर मंत्रों का जानकार एक परिव्राजक विद्या के बल से नगर की स्त्रियों का अपहरण कर रहा था । जैसे कि
युवा मन को चुरानेवाली, भ्रमर समूह के समान काले बालों की जूडावाली ललाट स्थल से अष्टमी चन्द्र को करनेवाली, कानों से कामदेव के आन्दोलन से तुलना करनेवाली, रूप से श्रेष्ठ देव स्त्री को जीतनेवाली, रति रस रूपी सागर से तीराने में जहाज के समान, शरीर की कांति से नूतन सूर्य को दास करनेवाली ऐसी जिसजिस स्त्री को वह देखता था, उस उस स्त्री का अपहरण करता था ।
उस दुःख से दुःखित नगर-वासीयों ने राजा से विज्ञप्ति की । राजा स्वयं ही गवेषणा करते हुए पाँचवें दिन की रात्रि में सुगंधि तैल और तांबूल आदि को ग्रहण करते हुए उसे चेष्टा से चोर जानकर उसके पीछे चलते हुए वन में गुप्त गृह में शिला को हटाकर प्रवेश करते हुए उसे अपनी तलवार से उसके सिर को छेद दिया । राजा ने नागरिकों को बुलाकर स्व-स्व वस्तु दी । तब एक स्त्री कार्मण से उस पर अस्थि मज्जा के समान अनुरागिनी हुई काष्ठ में जलने के लिए उत्सुक हुई । परंतु वह स्त्री पति को नहीं चाहती थी । मंत्र के जानकारों ने उसके पति के आगे कहा कि - यदि परिव्राजक के अस्थियों को पानी से प्रक्षालन कर इसे पीलाया जाएँ, तो यह उस पर स्नेह रहित होगी। उसने वैसा ही किया तब वह स्त्री अपने पति के ऊपर स्नेहवाली हुई । यहाँ पर
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