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________________ १८३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ धर्म कर स्वर्ग में गये। प्रभात होने पर राज-कुल के लोग उस अमंगल को देखकर पूत्कार करने लगे और उसी की निन्दा करने लगें । पश्चात् गवेषणा करते हुए भी वह कहीं पर भी नहीं मिला । वह दुष्ट भाग कर के और उज्जयिनी में जाकर अवन्ती स्वामी के आगे उदायी गृह का स्वरूप और जिस प्रकार से हुआ था उसे कहा । उसे सुनकर अवन्ती के स्वामी ने उसका तिरस्कार किया- तुझे धिक्कार हो, धिक्कार हो ! हे अप्रार्थनीय की प्रार्थना करनेवालें! हे हीन चतुर्दशी में जन्म को प्राप्त! हे अदर्शनीय मुखवाले ! हे पापिष्ठ ! धर्म के छल से तूंने धर्म करनेवाले को मारा हैं । इस प्रकार धर्म विप्लवकारी तुम मेरे देश से चले जाओं । इस प्रकार से कहकर उसे निकाल दिया । कहीं पर भी पापीओं की इच्छित की सिद्धि नहीं होती । अभव्यपने से द्वादश वर्ष पर्यंत आगम श्रवण, श्रावण, धर्म-क्रिया करण आदि सर्व भी निरर्थक हुआ । उदायी राजा उस प्रकार के क्रिया-कौशल्य के सेवन से स्वर्ग का आभरण हुआ । उसके बाद राज्य में नन्द राजा हुआ । इस प्रकार से पृथ्वी को भोगनेवाले श्रीमान् उदायी राजा के अखिल, आश्चर्यकारी और सुंदर चरित्र को यहाँ पर सरलता से कमल के समान कान में रखकर श्रीमान् जैन विधि में कुशलता को सूत्रित कर पंडित जन सम्यक्त्व को भूषित करे जिससे कि इच्छित लक्ष्मी आपको आनन्द पूर्वक आलिंगन करती हैं। इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में अडतीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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