________________
उपदेश-प्रासाद - भाग १
१८२ गुरुओं के आगे चार सो और बानवें स्थानकों से उपशोभित द्वादशावत वंदन कर और अतिचारों की आलोचना तथा क्षमापना कर चतुर्थ प्रत्याख्यान कर संध्या में स्व अंतःपुर में स्थित पौषधशाला में पौषध ग्रहण करने की इच्छा से उसने गुरु को बुलाया। क्योंकि-चरण का हेतु जो कुछ-भी आवश्यक आदि अनुष्ठान हैं, उसे गुरु के समीप में करना चाहिए और गुरु के विरह में स्थापना के आगे करना चाहिए ।
सूरि भी बाह्य से ही चारित्र का आचरण करनेवाले उस विनयरत्न के साथ में ही राज-कुल में आये । राजा भी गुरु को वंदन कर और सूत्र में कही हुई युक्ति से पौषध आदि लेकर और उनके साथ में प्रतिक्रमण कर प्रथम प्रहर की प्रतिलेखना कर तथा संथारे को बिछाकर मुर्गे के समान दोनों पैरों को प्रसारित कर सो गया । सूरि भी धर्म कथा कहकर सो गये ।
इस बीच वह दुष्टात्मा कपट निद्रा से क्षण के लिए सो कर यह ही पिता के वैर का निर्यातन का अवसर हैं इस प्रकार से सोचकर सोये हुए राजा के गले के विवर में कंक की लोह-पत्रिका रखी । वह पापिष्ठ और अभव्य काय-चिन्ता के बहाने से राजा की रक्षा में दक्ष पुरुषों से नहीं रोका जाता हुआ नगर से भी बाहर निकल गया । तब राजा के कंठ-वेदी से साक्षात् आपदाओं के स्थान के समान रक्तप्रवाह गुरु के संथारे में स्पर्श करने लगा । गुरु भी उसके स्पर्श से जाग गये । वैसे स्थित राजा को देखकर सूरि ने सोचा कि- अहो ! उस दुरात्मन् ने युग पर्यंत पश्चात्ताप और अपकीर्त्ति जनक जिन-मत की मलिनता की हैं, उससे मैं आत्मा के व्यय से अर्हत्-दर्शन की म्लानता को बचाता हूँ । इस प्रकार निश्चय कर और भव चरिम का प्रत्याख्यान कर तथा उस कंक-पत्रिका को कंठ में देकर सूरि काल