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उपदेश-प्रासाद - भाग १
१८१ कहीं पर स्थान को प्राप्त नहीं करता हुआ पिता के वैर निर्यातन के लिए उदायी राजा को मारने की इच्छावाला उज्जयिनी नगर में जाकर अवन्ती राजा की (उज्जयिनी राजा की ) सेवा करने लगा । एक बार उस सेवक ने राजा से विज्ञसि की कि- हे देव ! यदि श्रीमान्का आदेश हो तो मैं आपके शत्रु उदायी को मार डालूँ । यदि तुम प्रसन्न होकर सहाय कर मेरे पिता के राज्य को दिलाओ । इस प्रकार से उसके वचन को सुनकर राजा हर्षित हुआ । राजा ने उसके वचन को स्वीकार कर और भोजन की सामग्री देकर उसे भेजा । वह राज-पुत्र उदायी का सेवक हुआ । नित्य ही छिद्रों को ढूँढने लगा, परंतु कभी-भी उसने छिद्रों को प्राप्त नहीं किया । हमेशा ही राज-महल में अस्खलित गमन करनेवाले जैन मुनियों को ही देखा था। तब वह उदायी के राज-कुल में प्रवेश करने की इच्छावाला गुरु को वंदन कर विज्ञप्ति करने लगा कि- हे भगवन् ! आप संसार से विरागी मुझे निज दीक्षा दान से अनुग्रह करो । उसके अभिप्राय को नहीं जानते हुए उन महात्मा ने भी उसे दीक्षा दी । तब उसने छोटी तलवार को रजोहरण में छिपाकर माया से बारह वर्ष व्रत पर्याय का पालन किया । प्रधान श्रमणत्व का पालन करते हुए किसी ने भी उसकी भावना को नहीं पहचानी । अच्छी प्रकार से प्रयोग कीये हुए दंभ का ब्रह्मा भी अन्त को प्रास नहीं कर सकता।
अस्थिर चित्त और अनन्य मनवालें उसे उस प्रकार के व्रत का पालन करते हुए भी मुद्ग-पर्वत के समान उसका हृदय रोम मात्र भी कृपा रस से भेदित नहीं हुआ । एक बार सूरि पाटलीपुर में आये । तत्पश्चात् उदायी राजा ने भी गरु को नमस्कार कर व्याख्यान सुना । एक दिन पर्व दिन में राजा प्रातः काल में उठकर विधि से आवश्यक पूर्वक अष्टप्रकार की पूजा से जिन की पूजा कर और