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उपदेश-प्रासाद - भाग १ किया। उसके दहन हो जाने पर मंत्रियों ने उसके सिंहासन के ऊपर बालक श्रीमान उदायी का अभिषेक किया। पिता के स्नेह को स्मरण करते हुए वह भी शोक सहित रहने लगा। उसके शोक को दूर करने के लिए अन्य राजधानी करने की इच्छावाले मंत्रियों ने निमित्तवेदी और सुतारों को राजक्षेत्र की शुद्धि के लिए प्रस्थापित किया । वें भी उत्कर्ष से युक्त पृथ्वी की गवेषणा करते हुए गंगा तट पर स्थित अर्णिकापुत्र महामुनि की कपाल की भूमि पर पाटली वृक्ष पर स्वयं ही आकर गिरते हुए पतंगियें के स्वाद लेने में लालस मुखवालें तोतें को देखकर विचारने लगे कि-जैसे ये पतंगिये तोते के आहार के लिए आरहे हैं, वैसे ही इस नगर के स्वामी की शत्रुओं की लक्ष्मी अनायास से ही भोग्यता को प्राप्त होंगी, इस प्रकार से विचार कर वहीं पर राजधानी निर्माण की रेखा देकर पाटली वृक्ष के नाम से पाटलीपुर नाम किया । वहाँ श्रीउदायी राजा स्वयं ही आकर के राज्य का पालन करने लगा । स्थान पर ही रहते हुए उसके प्रताप रूपी सूर्य-उदय को सहन करने में असमर्थ हुए वैरी घूकत्व को प्राप्त हुए । वह पृथ्वी के ऊपर दिनो-दिन प्राचीन दान-धर्म का विस्तार करने लगा । अन्य यह भी है कि वह सद्गुरु के चरण समीप में ग्रहण कीये हुए द्वादशव्रत के खंडन के लिए किसी भी प्रकार से प्रवर्तन नहीं करता था । दृढ़ सम्यक्त्वी वह उदायी राजा चारों पर्यों में भी चतुर्थ करण से और देवगुरु वंदन, छह प्रकार के आवश्यक का आचरण और पौषध करण आदि कृत्यों से आत्मा को पवित्र करता हुआ अंतःपुर में बनाएँ गएँ पौषध-गृह में रात्रि के समय में श्रमण के समान क्षण के लिए विश्राम करता था । इस प्रकार से जिन-शासन की क्रियाओं में वह अत्यंत कौशल्यशाली हुआ।
एक बार युद्ध-भूमि में मारे हुए एक राजा का पुत्र, अकेला