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________________ १७६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ कोटि-अंश भी तेरे पुत्र में तेरा स्नेह नहीं हैं । हे माता ! कैसे ? इस प्रकार से कोणिक के द्वारा कहने पर उसने कहा कि-हे वत्स ! तेरे गर्भ में रहते मुझे तेरे पिता के आँत के आस्वादन का दोहद हुआ था । अभयकुमार के द्वारा उस दोहद के पूर्ण कीये जाने पर यह पुत्र पिता के अनर्थ का हेतु हैं इस प्रकार से मैंने जन्म मात्र को प्राप्त तुझे निज उद्यान की भूमि के ऊपर परिष्ठापन किया । वहाँ मुर्गे ने पाँख के अग्र से तुझे कनिष्ठ अंगुलि में वींधा । वह कृमि-पात से पीप से गिली हुई। उस क्षण में तेरे पिता उस वृत्तांत को जानकर और मेरा तिरस्कार कर, तुझे वन से लाकर और स्नेह-परवश हुए दूसरे राज-कार्यों को छोड़कर कैसे भी स्थित नहीं होते तुझे देखकर, तेरी अंगुलि को स्वमुख में रखकर तब तक स्थित हुए जब तक तुम रोदन से अवस्थित हुए । इस प्रकार से दिन-रात करते हुए वे तेरे पिता मेरे द्वारा निवारण करने पर भी तेरी सेवा से निवृत नहीं हुए। यह सुनकर पश्चात्ताप उत्पन्न होने से पिता को पिंजरे से छुड़ाने के लिए कोणिक दंड को लेकर जब दौड़ा, तब दंड को ऊँचा कर और यम के समान आते हुए उसे देखकर श्रेणिक राजा अपमृत्यु से भयभीत हुआ तालपुट विष का आस्वादन कर मरण प्राप्त हुआ। तब कोणिक स्व दुष्ट चेष्टा की निन्दा करता हुआ और पिता के स्नेह का स्मरण करता हुआ अत्यंत विलाप करने लगा । प्रति-दिन महान् दुःख का अनुभव करता हुआ कोणिक चंपानगरी को राजधानी करते हुए मंत्रियों के द्वारा शोक रहित किया गया । क्रम से कोणिक ने दक्षिण भरतार्ध के राजाओं को जीतकर और स्व बल से कृत्रिम चौदह रत्नों को कर, मैं भरत में तेरहवाँ चक्रवर्ती हुआ हूँ इस प्रकार से कहते हुए वैताढ्य पर्वत की तमिस्रा गुफा के कपाट संपुट को दंड से मारा । उससे क्रोधित हुए कृतमाल देव ने ज्वाला से उस राजा को भस्मसात्
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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