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________________ १७८ उपदेश-प्रासाद - भाग १ को प्राप्त कर उस जिन-मत की प्रभावना से देवपाल ने इस प्रकार से तीर्थंकर नाम कर्म का अर्जन किया । इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में सैंतीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। अडतीसवा व्याख्यान अब तृतीय भूषण कहा जाता हैं जिसे आवश्यक आदि क्रियाओं में कौशल्य हैं, ऐसा यह तीसरा सम्यक्त्व का भूषण आचरण करने योग्य हैं। इस विषय में उदायी राजा का प्रबन्ध हैं राजगृह में कोणिक राजा की स्त्री पद्मावती ने नौ मास पूर्ण हो जाने पर पुत्र को जन्म दिया । उस पुत्र का उदायी नाम दिया । ____एक दिन राजा उदायी को बायी जंघा के मूल में रखकर भोजन करने के लिए बैठा । अर्ध भोजन करने पर उस बालक ने घी की धारा के समान पात्र के अंदर मूत्र की धारा की । इस बालक को मूत्र के निरोध से रोग का संभव न हो, इस प्रकार मानकर राजा ने भी वात्सल्य-वश उसे लेश-मात्र भी नहीं चलाया । मूत्र से संसक्त हुए उस भोजन को हाथ से दूर कर वैसे ही भोजन का आस्वादन लेने लगा । अहो, मोह की प्रबलता । स्नेह से मोहित राजा ने उस अवसर पर स्व-माता चेलणा देवी से कहा कि- हे माता ! इस पुत्र के विषय में मेरा जैसा स्नेह हैं, वैसा स्नेह किसी को भी नहीं हुआ है, नहीं हो रहा है और नहीं होगा। यह सुनकर चेलणा ने भी कहा कि- तेरा स्नेह का उल्लास क्या है और कितना है ? तेरे विषय में जैसा स्नेह तेरे पिता का था, उसका
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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