________________
१७७
उपदेश-प्रासाद - भाग १ उस अवसर पर निष्पुत्र राजा मरण को प्राप्त हुआ था । देव के द्वारा कहे हुए दिन के हो जाने पर प्रधान आदि कृत पाँच दिव्यों ने उसे राज्य दिया । साम्राज्य के मिलने पर भी उसके दासपने से कोई भी आज्ञा को नहीं मान रहें थें । तब देवपाल ने भी उस देव के समीप में जाकर इस प्रकार से विज्ञप्ति की- मुझे इस राज्य से पर्यास हुआ, दासपना ही श्रेष्ठ हैं । देव ने कहा कि- तुम कुंभकार के पास में मिट्टीमय हाथी को कराकर और उस पर चढकर राज-पाटिका में जाओं।
देवपाल के द्वारा वैसा करने पर दिव्य अनुभाव से मिट्टीमय हाथी गंधहस्ती के समान मार्ग में जाते हुए लोगों को विस्मित करने लगा । तत्पश्चात् सभी ने उसकी आज्ञा को स्वीकार की । राजा ने पूर्व श्रेष्ठी को प्रधान पद पर स्थापित किया । अपने द्वारा कराएँ हुए ऊँचे मंदिर में उस बिंब को स्थापित कर तीनों काल ही जिन-पूजा को करता हुआ जिन-शासन की प्रभावना की । राजा ने पूर्व राजा की पुत्री से विवाह किया।
___ एक बार गवाक्ष में स्थित वह काष्ठों को वहन करते हुए किसी वृद्ध मनुष्य को देखकर राजा के आगे मूर्छा प्राप्त की । उसने शीत-उपचार से चैतन्य प्राप्त किया। तब उस वृद्ध को बुलाकर उसने राजा के आगे स्व-स्वरूप कहा कि- हे स्वामी ! मैं गत भव में इसी की प्रिया थी । हे राजन् ! इस बिंब की पूजा से इस भव में मैं तेरी प्रिया हुई हूँ। पूर्व भव में मैंने इसे बहुत कहा था, फिर भी इसने धर्म को अंगीकार नहीं किया था । उससे आज भी इसकी ऐसी अवस्था दीख रही हैं । उसे सुनकर वृद्ध भी लेश-मात्र से धर्म में रत हुआ । अब देवपाल ने परमात्मा की पूजा और प्रभावना आदि से तीर्थंकर कर्म बाँधा । प्रान्त में प्रव्रज्या को लेकर स्वर्ग-भागी हुआ ।
रंकमात्र भी वैसे भव में घोड़ें, हाथी और सेना से युक्त राज्य