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उपदेश-प्रासाद भाग १
सैंतीसवाँ व्याख्यान
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अब द्वितीय भूषण को कहते हैं
सदा ही अनेक धर्म कार्य से तीर्थ की उन्नति करें । प्रभावना नामक यह द्वितीय सम्यक्त्व का भूषण हैं ।
भावार्थ तो देवपाल राजा के प्रबन्ध से जानें
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अचलपुर में सिंह राजा को मान्य जिनदत्त श्रेष्ठी हैं । उसका दास देवपाल हमेशा अरण्य में गाय के समूह को चराता था । एक दिन वर्षाकाल में नदी के तट पर युगादि जिन का सूर्य के समान बिंब को देखा। उसने तृण की कुटीर कर मूर्त्ति को पुष्पों से पूजित कर और मध्य में निवेशित कर इस प्रकार के नियम को ग्रहण किया कि - प्रतिदिन मैं प्रभु भक्ति के बिना भोजन नहीं करूँगा । पश्चात् निज-स्थान
पर चला गया ।
एक बार वर्षा के आरंभ से नदी -पूर के उत्पन्न होने पर वहाँ जाने में असमर्थ हुआ शोक सहित स्व-गृह में स्थित हुआ । तब श्रेष्ठी ने कहा कि- हे भद्र ! तुम हमारें गृह बिंबों की ही पूजा करो । श्रेष्ठी के वाक्य से जिन - पूजा करने पर भी वह दास भोजन नहीं कर रहा था । आठवें दिन पानी का पूर दूर हो जाने पर प्रातः काल में वह पूजा के लिए गया । वहाँ चैत्य के समीप में भयंकर सिंह को देखकर सियाल के समान उसकी अवगणना कर और देव की पूजा कर उसने कहा कि
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हे स्वामी ! आपके दर्शन के बिना मेरे सात दिन अरण्य वृक्ष के फल की श्रेणि के समान अकृतार्थ हुए हैं ।
इस प्रकार उसके सत्त्व और भक्ति से संतुष्ट हुए देव ने कहा कि- हे भद्र ! इष्ट वर माँगों । देवपाल ने कहा- मुझे राज्य दो । देव ने कहा कि सातवें दिवस तुझे राज्य मिलेगा, इसमें संशय नहीं हैं।
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