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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ अतः तुम्हारे द्वारा उद्भावित हेतु की असिद्धता होती है । तथा प्रशस्य भाष्य रूपी शस्य के लिए पृथ्वी के समान पूज्य श्रीजिनभद्रगणि ने कहा है कि- वह मंगल शास्त्र के आदि में, मध्य में और अंत में होता है । शास्त्रार्थ के अविघ्नता से पार पहुँचने के लिए प्रथम मंगल ही निर्देशित किया गया है, इत्यादि । तथा शिष्टों की मर्यादा का पालन होने से । शिष्ट कौन हैं ? शास्त्र रूपी सागर की प्राप्ति के लिए शुभ में रहनेवालें, वेंही शिष्ट हैं । जैसे कि कहा है कि शिष्टों का यह आचार है कि वे दूषण को छोड़कर निरंतर शुभ प्रयोजन में ही प्रवर्तन करतें हैं। तथा बुद्धिमान् लोग फल की अभिलाषावाले ही होते हैं । प्रयोजन आदि के रहितपने से वे काँटे और शाखा के मर्दन के समान उसमें प्रवृत्ति नही करतें है । इस प्रकार की आशंका को दूर करने के लिए, बुद्धिमान् लोगों के प्रवर्तन के लिए तथा अकल्याण को नष्ट करने के लिए समुचित इष्ट देवता को नमस्कार पूर्वक संबंधअभिधेय-प्रयोजन को सूचन करनेवाला आद्य श्लोक कहते है कि इंद्रों की श्रेणि से नमस्कार कीये हुए और अतिशयों से सहित शांतिनाथ को नमस्कार कर प्रबोध देनेवाले उपदेश-सद्म नामक ग्रन्थ को मैं कहूँगा। व्याख्याः - मैं उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ को कहूँगा, इस प्रकार यह क्रिया-संबंध है । वहाँ उपदेश अर्थात् प्रति-दिन व्याख्यान के योग्य तीन सो और इकसठ प्रमाण सुंदर चरित्र हैं । उनका सम अर्थात् स्थान, उससे संबंधित ग्रन्थ अर्थात् उस नामवाला शास्त्र । जो गूंथा जाय वह यह ग्रन्थ है । मैं उसे वक्ष्ये अर्थात् कहूँगा । कौन-सा लक्षणवाला ग्रन्थ है ? प्रबोधदः अर्थात् सम्यग् ज्ञान देनेवाला, ऐसे उसे ! क्या करके ? नमस्कार कर अर्थात् मन-वचन-काया से
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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