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उपदेश-प्रासाद - भाग १ सत्यत्व को प्राप्त होता है, वैसे ही श्रुतधर के पास में कहा हुआ भी सत्यता को प्राप्त होता है।
_ जैसे कोई प्यासा क्षीर-समुद्र से अल्प जल को ग्रहण कर प्यास को छोड़ देता है, वैसे ही बहुत शास्त्रों से संग्रह कर यहाँ व्याख्या को लिखता हुआ मैं भी सज्जनों को गर्हनीय नही होऊँगा।
___ यहाँ एक-एक श्लोक के बीच में एक-एक उदाहरण रखा गया है । गद्य से गर्भित उसकी संख्या संवत्सर के दिन - समान होती
है।
___ अब यहाँ ग्रन्थ के आदि में नमस्कारात्मक, वस्तुनिर्देशात्मक और आशीर्वादात्मक निर्विघ्नता के लिए और शिष्टों की मर्यादा के परिपालन के लिए कहना चाहिए, क्योंकि
___महान् पुरुषों को भी कल्याणकारी कार्य बहुत विघ्नवाले होते है । अश्रेयकारी कार्य में प्रवृत्त हुए मनुष्यों के विघ्न कहीं दूर चले जातें हैं।
अतः उस कारण से ग्रन्थ के आरंभ में विघ्न-समूह की शान्ति के लिए वह मंगल शास्त्र के आदि में, मध्य में और अंत में इष्ट है । यहाँ पर शिष्य का प्रश्न है कि- निश्चय ही स्याद्वाद-धर्म वर्णात्मक यह सर्वही मंगल है, इतना ही हो तथा प्रयोजन के अभाव से मंगल के तीनों ही प्रकार अयुक्त है ।
गुरु कहते है कि- हे शिष्य ! प्रयोजन-अभाव के असिद्धपने से ऐसा नहीं है । तथा शिष्य कैसे विवक्षित ग्रन्थ को अविघ्नता से पार को प्राप्त करें ? अतः आदि मंगल का उपन्यास हुआ है । तथा उन शिष्यों को वह ही कैसे स्थिर हो ? अतः मध्य मंगल का ग्रहण हुआ है । तथा वह ही शिष्य-प्रशिष्य आदि वंश की अव्यवच्छित्ति में कैसे उपकारक हो ? इसलिए ही चरम मंगल का उपादान हुआ है।