________________
१७३
उपदेश-प्रासाद - भाग १
यदि राज्य के एक योग्य और गुणों से सुंदर रामभद्र भी वन में गया था और बहुत पत्नीयोंवाले विद्याधर श्रीरावण ने भी सीता का अपहरण किया था।
इस प्रकार से कहकर देव चला गया । अब काल पूर्ण हो जाने पर सुलसा ने बत्तीस पुत्रों को जन्म दिया । नाग ने उनका जन्मोत्सव किया । क्रम से उन्होंने यौवन को प्राप्त किया और राजा के सेवक हुए ।
इस ओर श्रेणिक तापसी के द्वारा लाएँ हुए और चित्र में स्थित चेटक की पुत्री सुज्येष्ठा के रूप को देखकर उसे स्वीकार करने की इच्छावाला हुआ। तब अभय सुगंधि द्रव्यों के विक्रेता के वेष से वहाँ जाकर राजा के अंतःपुर के समीप में दूकान को स्थापित की । जब सुज्येष्ठा की दासी वहाँ पर वस्तु को ग्रहण करने के लिए आती थी, तब अभय श्रेणिक रूपवाले पट्ट की पूजा करता था । एक दिन दासी ने पूछा-यह किसका रूप हैं ? अभय ने कहा कि- श्रेणिक का हैं। उसने चित्र पट्ट को लेकर सुज्येष्ठा को दिखाया । काम से पीड़ित हुई सुज्येष्ठा ने कहा कि- तुम वैसा करो जिससे कि वह मेरा पति हो । दासी ने अभय के आगे कहा । उसने उस अंतःपुर से पिता के नगर पर्यंत सुरंग को कराकर पिता को ज्ञापन किया कि - आप अमुक दिन होने पर सुरंग के मार्ग से आएँ । राजा के आजाने पर जब सुज्येष्ठा जाने की इच्छावाली हुई तब चेलणा ने भी कहा कि- वह ही मेरे भी स्वामी हो । दोनों भी पुत्रियाँ सुरंग के मार्ग पर आगयी । उनके कितने ही दूर चले जाने पर अपने रत्न-करंडक को ग्रहण करने के लिए उत्सुक हुई सुज्येष्ठा ने कहा कि- हे बहन ! मेरे बिना आगे मत जाना, इस प्रकार से कहकर करंडक को लाने के लिए सुज्येष्ठा चली गयी । इस ओर सुलसा के पुत्रों ने राजा से कहा कि- हे देव ! यहाँ शत्रु के घर में चिर समय तक रहना योग्य नहीं हैं । इस प्रकार उनके द्वारा प्रेरित किया