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उपदेश-प्रासाद
भाग १
१७२
हुए पति को देखकर सुलसा ने कहा कि - हे स्वामी ! आप खेद मत करो । धर्म से हम दोनों का इच्छित फलित होगा । उसके बाद वह तीनों सन्ध्याओं में जिनेश्वर की पूजा करने लगी । ब्रह्मचर्य से आयंबिल करने लगी ।
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इस ओर इन्द्र से उसके सत्त्व - प्रशंसा के वाक्य को सुनकर सेना के स्वामी हरिणेगमेषी देव दो साधुओं का रूप कर और आकर के सुलसा से कहा कि - हे श्राविके ! तुम ग्लान की चिकित्सा के लिए लक्षपाक तैल दो । वह आनंदित हुई अंदर प्रवेश कर जब तैल कुंभ को उपहार देने लगी, तब देव ने उसे भूमि के ऊपर गिरा दिया । इस प्रकार से उसने दिव्य महिमा से सात कलशों को तोड़ दीये । फिर भी सुलसा के अभंगुर भाव को देखकर और प्रकट होकर देव ने कहा कि- हे भद्रे ! मैं देव हूँ और तेरी परीक्षा करने के लिए आया था । मैं संतुष्ट हुआ हूँ । अब तुम किसी अर्थ की प्रार्थना करो । सुलसा ने कहा कि- हे देव ! यदि तुम मुझ पर संतुष्ट हुए हो तो मुझे पुत्र दो । देव ने भी उसे हर्ष से बत्तीस गुटिकाएँ दी ।
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तेरे द्वारा एक - एक गुटिका खानी चाहिए, इस प्रकार से कहकर और घड़ों को प्रकटित कर देव स्वर्ग में चला गया । ऋतुकाल में बहुत गर्भ के दुःख और सूति - कर्म से भय-भीत उस सुलसा ने बत्तीस लक्षणोंवाला एक ही पुत्र हो इस प्रकार से सोचकर समस्त ही गुटिकाओं का भक्षण किया । क्रम से बहुत गर्भ भार को धारण करने से व्यथा को प्राप्त हुई उसने कायोत्सर्ग से उस देव का स्मरण किया । तब उस देव ने पीड़ा का संहरण कर कहा कि- तूंने अकार्य किया हैं उससे तुझे एक ही साथ बत्तीस पुत्र होंगे । परंतु समान आयुष्यता के वश से यें बत्तीस पुत्र भी समकाल में विनाश प्राप्त होंगे । भवितव्यता दुर्लंघ्य हैं । जैसे कि
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