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उपदेश-प्रासाद - भाग १ अन्य कौन इस प्रकार से समझाएँ । अब मैं अपना मुख कैसे दिखाऊँ ? कलंक से युक्त मेरे जन्म को धिक्कार हो । इस प्रकार से सोचकर जब वह अग्नि में प्रवेश करने लगा, तब राज-लोगों की प्रार्थना से वहीं पर आकर गुरु ने कहा कि- हे राजन् ! चित्त से बाँधा हुआ कर्म चित्त से ही छोड़ा जाता है । अथवा स्मृति आदि के जानकारों से पूछो । स्मृति आदि में भी पाप त्याग के उपाय कहे हुए हैं । राजा ने स्मृति के जानकारों को आह्वानित किया । उन्होंने कहा कि
उसके समान वर्ण और रूपवाली तथा अग्नि में धमी हुई लोह की पुतली को आलिंगन करता हुआ पुरुष शीघ्र से चांडाली से संभव पाप से छूट जाता है।
यह सुनकर राजा उसके आलिंगन के लिए सज्ज हुआ । तब गुरु ने इस प्रकार से कहा कि- हे राजन् ! तेरे द्वारा संकल्प से किया हुआ पाप पश्चात्ताप से समाप्त हुआ हैं । पतंगियें के उचित उद्यम को छोड़ दो और चिर समय तक जैन-धर्म करो । इस प्रकार से राजा को सान्त्वना देकर सूरि स्व-आश्रय में आये ।
एक दिन राजा ने सूरि से पूछा कि- हे भगवन् ! मेरा पूर्व भव कौन-सा है ? प्रातः सरस्वती के वचन से गुरु ने उससे कहा कि- हे राजन् ! सुनो! तुम कालिंजर-पर्वत के तट के ऊपर साल वृक्ष के नीचे भाग में उपवास के अंतराल में भोजन करनेवाले तपस्वी थें । डेढ सो वर्ष घोर तप से तपकर आयु के प्रान्त में राजा हुए हो । आज भी उस वृक्ष के नीचे तेरी जटाएँ हैं । यह सुनकर राजा ने जटाएँ मँगायी । उसे देखकर विश्वास के उत्पन्न होने से परम-आर्हत हुआ । गुरु के उपदेश से बड़े विस्तार से सिद्धगिरि की यात्रा कर दिगंबरों के द्वारा ग्रहण कीये हुए गिरनार तीर्थ को वापिस लिया । क्रम से राज्य का पालन कर नमस्कार आराधना में लीन उसने उत्तम अर्थको साधा । कवियों की