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________________ १६६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ बाला को वाणी से सुंदर गाती हुई को देखकर मदन ज्वर से पीडित हुए आम ने कहा कि मुख पूर्णचन्द्र के समान हैं, होंठ रूपी लता अमृत के समान हैं, दाँत मणि की श्रेणियों के समान हैं, लक्ष्मी के समान कान्ति हैं, हाथी के समान चाल हैं और पारिजात वृक्ष के समान तेरा परिमल हैं । वाणी कामधेनु के समान हैं और वह कटाक्ष लहरी कालकूट छटा के समान हैं, उससे हे चन्द्रमुखी ! क्या देवों ने तुम्हारे लिए क्षीरसमुद्र का मन्थन किया था ? सूरि ने विचारा कि- महान् पुरुषों को भी कैसा मतिविपर्यास होता हैं ? तब सभा उठी । राजा ने- मैं चाण्डालिनी के साथ में यहाँ पर रहूँगा, इस प्रकार की बुद्धि से तीन दिनों में नगर के बाहर महल कराया । आम के अभिप्राय को जाननेवाले गुरु ने सोचा कियह नरक के हेतु कुमार्ग का सेवन न करे, वैसे मैं करूँ । इस प्रकार की कृपा से बनते हुए महल के भार-पट्ट के ऊपर रात्रि के समय में खड़ी से प्रतिबोध काव्य लिखें, जैसे कि हे पानी ! शीतलता नामक गुण तेरा ही हैं, और स्वच्छता भी स्वाभाविकी हैं । हम पवित्रता के बारे में क्या कहें? क्योंकि तेरे संग से अन्य अपवित्र भी पवित्र होते हैं । इसके अलावा भी तेरा कौनसा स्तुति-पद हो सकता हैं ? तुम ही प्राणियों के जीवन हो । यदि तुम नीच-मार्ग से गमन करते हो तो तुझे रोकने के लिए कौन समर्थ हैं ? जिससे लोक में लज्जित हुआ जाता हैं, जिससे निज कुल-क्रम मलिन किया जाता हैं, जीव के कंठ-स्थित होने पर भी कुलीनों के द्वारा वह नही करना चाहिए । इत्यादि। प्रातः काल में आम राजा भी उस महल को देखने के लिए गया । उन पद्यों को देखा और विचार किया कि- मेरे मित्र के बिना
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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