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________________ १६६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ एक दिन आम ने मित्र बप्पभट्टि से कहा- यदि मैं राज्य को प्राप्त करूँगा तो मैं उसे तुझे दूंगा । पश्चात् कितने ही काल के बाद राज्य को प्राप्त कर आम ने बप्पभट्टि को वहाँ पर बुलाया । राजा ने उनको बैठने के लिए सिंहासन दिखाया, तब मुनि ने कहा- सूरि पद होने पर हमें सिंहासन कल्प्य हैं । तब राजा ने गुरु के समीप में मुनि को सूरि पद दिलवाया। एक बार राजा ने सूरि से कहा कि-हे स्वामी ! राज्य को ग्रहण करो । सूरि ने कहा कि- हे राजन् ! हम देह के ऊपर भी निःसंग है, राज्य से क्या करें ? यह सुनकर आश्चर्यचकित हुए राजा ने गुरु के उपदेश से एक सो और आठ हाथ ऊँचे मंदिर को बनवाया और उस मंदिर में जात्य-सुवर्ण और अठारह भार मित श्रीवीर भगवान की प्रतिमा को स्थापित की। एक दिन अंतःपुर में मुझाएँ मुखवाली पत्नी को देखकर राजा ने सूरि से इस प्रकार से समस्या कही- आज भी वह कमल-मुखी अपने प्रमाद से पीड़ित हो रही हैं । सिद्धसारस्वत सूरि ने कहाजिससे कि पूर्व में जागे हुए तुमने उसके अंग को ढंका था । पुनः पदपद के ऊपर मन्द-मन्द से संचार करती हुई उसे देखकर राजा ने कहा कि-किस कारण से चलती हुई बाला पद-पद पर मुख-भंग को कर रही हैं ? सूरि ने कहा कि-निश्चय ही रमण प्रदेश में मेखला की नखपंक्ति स्पर्श कर रही हैं । यह सुनकर राजा विकृत-मुख और निरादरवाला हुआ । गूढ़ कोपवाले राजा को जानकर सूरि ने स्वआश्रय के कपाट के ऊपर काव्य को लिखकर विहार किया । वह काव्य यह हैं ___ हे आम ! तेरा कल्याण हो, मुझ रोहण-पर्वत से च्युत हुए ये कैसे होंगे ? इस प्रकार से किसी भी प्रकार से स्वप्न में भी विचार मत
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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