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उपदेश-प्रासाद भाग १
पतिव्रतापने से उसके शरीर में कुष्ठ का संक्रान्त हुआ ।
प्रातः राज-सभा में दोनों के मिलने पर मयूर ने कुष्ठी इस प्रकार से उसे कहा । उसे सुनकर लज्जा से युक्त बाण उठकर और नगर की सीमा में स्तंभ का आरोपण कर और नीचे खदिर - अंगार से पूर्ण कुंड कर स्तंभ के आगे रहे हुए छींके के ऊपर चढकर सूर्य की स्तुति की। प्रति काव्य के अंत में छुरि से छींके की एक-एक रस्सी को छेदते हुए पाँच काव्यों से पाँच रस्सीयों को छेद डालने पर बाण छींके के आगे विलग्न हुआ । छट्ठे काव्य में प्रत्यक्ष होकर सूर्य ने उसके देह को स्वर्ण वर्णवाला किया ।
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द्वितीय दिवस राज सभा में आडंबर सहित आकर बाण ने मयूर से कहा कि - हे पक्षी ! गरुड़ के आगे तुझ बंदर की कौन-सी शक्ति है ? यदि है तो तुम भी ऐसे आश्चर्य को प्रकट करो । उसने कहा-रोग से रहित को चिकित्सक से क्या काम ? तो भी तेरे वचन को कुंठित करने के लिए मैं तैयार हूँ । इस प्रकार से कहकर छुरि से अपने दोनों हाथ और पैरों का विदारण कर तथा चंडी-स्तोत्र को कहते हुए पूर्व काव्य के छट्टे अक्षर से प्रसन्न की हुई चंडीका ने हाथ पैर के साथ विशेष रूप से देह को वज्र के समान किया । तब राजा ने उसका अति सन्मान किया ।
इस ओर जैन- द्वेषियों ने राजा से कहा कि - यदि कोई जैन ऐसा प्रभाव रूपी विभववाला हो, तो श्वेतांबर स्व- देश में रखे जाय नहीं तो निकाले जाय । उसके बाद राजा ने कहा कि- मानतुंग- आचार्य स्व-देव के किसी अतिशय को दीखाएँ । वें आचार्य चुम्मालीस बेडियो से स्व-अंग को नियंत्रित कराकर और चुम्मालीस कमरे में स्थित होकर सर्वत्र ही लोह -ताले दिलवाएँ । भक्तामर के एक-एक काव्य से एक-एक जंजीर आदि क्रम से तूटने लगें । चरम काव्य में