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________________ १६३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ हे गुरुदेव ! कुदेव को छोड़कर कल्पित शास्त्र रूपी गृह का निर्माण कराने में पूज्य श्रीहरिभद्रसूरि निर्माता के समान हैं । वें पूज्य हमें कविताओं में शक्ति दें। इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में चौतिसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। पैंतीसवाँ व्याख्यान अब द्वितीय अतिशय से युक्त कवि की स्तुति करते हैं जो अतिशय से युक्त काव्यों के भाषण में कुशल होते हैं, वें इस शासन में विस्मयकृत् प्रभावक जानें जाये । इस विषय में यह मानतुङ्गसूरि का प्रबंध है__ धारा में मयूर और बाण नामक बहनोई और साला पंडित दोनों परस्पर स्पर्धा करते हुए अपनी विद्वत्ता से राज-सभा में प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। कभी बाण बहन से मिलने के लिए उसके घर में आया । रात्रि के समय में द्वार पर सोया । बहनोई ने पत्नी से मान त्याग के लिए जो कहा था, उसे बाण ने सुन लिया । जैसे कि रात्रि प्रायः कर व्यतीत हो चुकी है, शीर्ण हुए के समान चन्द्र कृश-शरीरवाला हुआ है, निद्रा वश को प्राप्त हुआ घूर्णित होते हुए के समान यह दीपक भी हिल रहा हैं, प्रणाम से अंत होनेवाला मान हैं, अहो ! फिर भी तुम क्रोध को नहीं छोड़ रही हो । इस प्रकार से सुनकर द्वार पर रहे हुए बाण ने कहा किस्तन के अत्यंत सामीप्य से हे चंडी । तेरा हृदय भी कठिन है। इस प्रकार से भाई के मुख से चौथे पद को सुनकर क्रोधित हुई और लज्जा से युक्त उसने भाई को शाप दिया कि- तुम कुष्ठी बनो ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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