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उपदेश-प्रासाद - भाग १ रूप में स्वीकार किया।
इस ओर मालपुर में जैन धन श्रेष्ठी हैं । द्युतकारों ने उसके सिद्ध नामक पुत्र को खाई में डाला । पिता ने उनके देने योग्य धन को देकर पुत्र को छुड़ाया । उसे सर्व कार्यों का अध्यक्ष कर विवाहित किया। सिद्ध श्रेष्ठी कार्यों को समाप्त कर देर रात होने पर घर पर जाता था। एक बार निद्रित उसकी पत्नी और माता ने देर रात होने पर द्वार पर आये हुए उसे कहा कि- जहाँ पर अब द्वार उद्घाटित हो, वहाँ पर जाओ । यह सुनकर वह नगरी में भ्रमण करते हुए सूरि के उपाश्रय में गया । वहाँ पर उसने दीक्षा ली । वहाँ सूरि के पास में जैन शास्त्रों को पढ़कर विशेष से तर्कों को ग्रहण करने की इच्छावाले उनको बौद्ध के समीप में जाते हुए हरिभद्र सूरि ने कहा कि- यदि बौद्धों के संग से आपके मन का परावर्तन हो जाय तो आप यहाँ आकर हमारे वेष को देना । उन्होंने यह स्वीकार किया । पश्चात् वे वेष को देने के लिए सूरि के पास आएँ । सूरि ने युक्ति से उनको धर्म में स्थिर किया । तब वें बौद्ध वेष के समीप में जाकर पढ़ने लगें । वहाँ बौद्धों ने कुतर्क से उनके मन को परावर्तित किया । वें बौद्ध वेष को देने के लिए उनके समीप में गये । वहाँ बौद्धों के द्वारा विपरीत ग्रहण कराएँ हुए वे सूरि के समीप में आये । इस प्रकार से इक्कीस बार होने पर गुरु ने सोचा कि- इस वराक की कुदृष्टि से दुर्गति न हो, ऐसा सोचकर सूरि ने तर्क सहित ललित-विस्तरा की रचना कर उनको दी । उससे संतुष्ट हुए और निश्चल मनवाले उन्होंने कहा
उन प्रवर सूरि हरिभद्र को नमस्कार हो, जिन्होंने मेरे लिए ललित-विस्तरा की वृत्ति का निर्माण किया । तत्पश्चात् उन सिद्धर्षि ने सोलह हजार प्रमाणवालें उपमितिभव प्रपंच कथा की रचना की । क्रम से सूरि स्वर्ग को प्राप्त हुए ।