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उपदेश-प्रासाद
भाग १
१६१
कि - हे भगवन् ! बौद्ध शास्त्रों के रहस्य को ग्रहण कर बौद्ध जीते जाएँ, इस लिए हम दोनों वहाँ पर जाएँगें । सूरि ने कहा- तुम दोनों वेषान्तर कर जाओं । उन दोनों ने वैसा कर और वहाँ जाकर बौद्ध शास्त्र के मर्मज्ञ हुए । एक बार बौद्ध ने उनको क्रिया से श्वेतांबर जानकर उन दोनों की पहचान के लिए छात्रों के पढ़ने के लिए चढ़ने की सीढी की सोपान पर खड़ी से अर्हत्-बिंब को चित्रित किया । उतरने के समय सभी बिंब के ऊपर पैर देकर नीचे उतरें । प्रतिमा के कंठ में तीन रेखाओं का चिह्न कर हंस और परमहंस नीचे उतरें । उससे भय से युक्त वें दोनों पुस्तक को लेकर भाग गये । बौद्ध ने राजा के सैन्य को उन दोनों के पीछे भेजा । हंस ने बहुत सैन्य को मारा । बहुत होकर सैन्य ने हंस को मारा । चित्रकूट के समीप में भागकर सोये हुए दूसरे परमहंस को मार दिया। गुरु ने उस वृत्तांत को जानकर क्रोध सहित तपे हुए तेलवाले कड़ह में होमने के लिए चौदह सो और चुम्मालीस बौद्धों को मंत्र-शक्ति से आकर्षित किया । उनके गुरु ने इस वृत्तांत को जान लिया। गुरु ने उनके प्रतिबोध के लिए सूरि के समीप में दो साधु भेजें । उन्होंने सूरि को यें गाथाये दी, जैसे कि
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गुणसेन - अग्निशर्मा और पिता-पुत्र सिंह - आनन्द । मातापुत्र जालिनी - शिखी और पति - भार्या धन - धनश्री । सहोदर जयविजय और पति - भार्या धरण - लक्ष्मी । सातवें जन्म में पिता और चाचा के पुत्र सेण-विसेण । गुणचंद्र - वाणव्यंतर और नव में भव में समरादित्य - गिरिसेन । एक का मोक्ष और दूसरे का अनंत संसार । जैसे लोक में कुशास्त्र रूपी पवन से आहत कषाय रूपी अग्नि जाज्वल्यमान होती है, जिनवचन रूपी अमृत से सिंचित आप भी प्रज्वलित हो, यह योग्य नहीं हैं । यह सुनकर सूरि पाप से निवृत्त हुए । श्रीहरिभद्रसूरि ने चौदह सो और चुम्मालीस ग्रन्थों को प्रायश्चित्त के
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