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उपदेश-प्रासाद - भाग १ के प्रणेता हैं । यह उनका उदाहरण है
चित्रकूट में हरिभद्र ब्राह्मण उदर के ऊपर लोह के पट्टे को धारण किया हुआ और चौदह विद्याओं में कुशल सर्व शास्त्रार्थ को जानता था । उसने प्रतिज्ञा की थी कि- जिसका पढ़ा हुआ मैं नहीं जानूँगा, उसका मैं शिष्य बनूँगा । एक बार नगरी के मध्य में जाते हुए याकिनी नामक साध्वी के मुख से इस गाथा को सुनी -
दो चक्रवर्ती, पाँच वासुदेव, पाँच चक्रवर्ती, वासुदेव और चक्रवर्ती । वासुदेव, चक्रवर्ती, वासुदेव और दो चक्रवर्ती, वासुदेव और चक्रवर्ती।
उसे सुनकर और साध्वी के आगे जाकर उसने कहा कि- हे माता ! यह क्या चक-चकाट कर रही हो ? उसने कहा- निश्चय से नूतन चकचकाट करता है । यह सुनकर उसने सोचा कि- अहो ! इसने मुझे उत्तर से जीत लिया है । तब उसने कहा कि- हे माता ! गाथा का अर्थ कहो । साध्वी ने कहा- मेरे गुरु कहेंगें । उसने कहावेंकहाँ हैं ? तब साध्वी उसे चैत्य में ले गयी । वहाँ देव को देखकर उसने कहा कि
हे भगवन् ! आपका शरीर ही वीतरागता को कह रहा है । कोटर में अग्नि के रहते वृक्ष हरा नहीं होता।
इस प्रकार से स्तुति कर गुरु के समीप में गया । सूरि को नमस्कार कर गाथार्थ पूछा । गुरु ने उसका अर्थ कहा । उसे सुनकर पूर्व प्रतिज्ञा से बद्ध उसने दीक्षा ली । जैन ग्रन्थों के अभ्यास में अत्यंत दृढ़ दर्शनी हुए । गुरु ने उनको सूरि पद पर स्थापित किया । उन्होंने स्वयं ही आवश्यक नियुक्ति की बृहद् वृत्ति में चक्की इत्यादि गाथा का विवरण किया हैं।
एक बार हंस-परमहंस सूरि से शास्त्रों को पढकर कहने लगे