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उपदेश-प्रासाद
आराधना की ।
इस ओर शालिवाहन राजा की सभा में चार ऋषि लाखश्लोक प्रमित चार ग्रन्थों को हाथ में लेकर और आकर के कहा किहे राजन् ! हमारें ग्रन्थों को सुनो ! राजा ने कहा- अत्यंत बड़े ग्रन्थों को सुनने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ । उन्होंने ग्रन्थों को अर्ध कर कहा । तो भी सुनने के लिए राजा को असमर्थ जानकर निकाल- निकाल करके एक-एक श्लोक को किया । जब राजा उसे भी नहीं सुनता हैं तब आत्रेय ऋषि ने चिकित्सा शास्त्र के रहस्यमय एक पद को किया । और वह यह हैं- आत्रेय ने जीर्ण होने पर भोजन । द्वितीय ऋषि ने द्वितीय पाद कहा- कपिल ने प्राणियों की दया । तृतिय ने नीतिशास्त्र के रहस्य को कहा - बृहस्पति ने अविश्वास । चतुर्थ ने काम तत्त्व को कहा- पञ्चाल ने स्त्रियों में मार्दव को । इस प्रकार चार लाख श्लोकों के रहस्य को एक ही श्लोक से किया गया । उसे सुनकर और उनका सम्मान कर राजा पुनः पुनः प्रशंसा करने लगा । तब राजा की पत्नी भोगवती ने कहा कि
भाग १
१५८
मद के समूह से दुष्प्रेक्ष्य वादींद्र रूपी गज-समूह तब तक ही गर्जना करता हैं, जब तक सिंह से पाद - लिप्तक उल्लसित नहीं होता हैं ।
राजा ने उसे सुनकर स्व-प्रधान को भेजकर सूरि को बुलाया । इस ओर उस नगरी के सभी विद्वान् मिलकर घी से भरे हुए एक थाल कसूर के संमुख भेजा । आचार्य ने घी के मध्य में एक सूई डालकर उसे वैसे ही वापिस लौटाया। राजा ने पंडितों से उसका भाव पूछा । तब उन्होंने कहा कि- यह नगर विद्वानों से पूर्ण हैं, जैसे कि घी से थाल पूर्ण हैं, यही हमारा भाव था । इस आचार्य का यह भाव था - जैसे तीक्ष्णता से सूई ने प्रवेश किया है, वैसे ही मैं भी प्रवेश करूँगा । उसे
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