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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ १५७ को वश किया । वहाँ नागार्जुन नामक योगी विद्या आम्नाय को ग्रहण करने की इच्छा से श्रावक होकर गुरु- पादों की सेवा करने लगा । नित्य गुरु- पादों को वंदन करते हुए उसने गंध से एक सो और सात औषधियों को जानी । उनको मिलाकर और पानी से दोनों पादों का लेप कर आकाश में कितनी ही दूर जाकर जहाँ-तहाँ भूमि के ऊपर गिरता था । एक बार गुरु ने घाव के समूहों से युक्त योगी से पूछा किहे भद्र ! तेरे देह में यह कौन-सा घाव का समूह हैं ? उसने भी जिस प्रकार से किया था, वह सब ही कहा। उसकी बुद्धि से रंजित हुए गुरु उसे निम्न लेप बताकर उसे श्रावक बना कर चले गये । - जो तुम्हें आकाश में उड़ने की इच्छा हैं तो तुम साईठ चावलवाले दूध से इन औषधियों का लेप करो । इस गुरु के द्वारा कहे हुए प्रयोग से पूर्ण मनोरथवालें उसने एक दिन बहुत द्रव्य से उपार्जित स्वर्ण-सिद्धिक रस से भरी हुई कूपिका को स्व-शिष्य के हाथ से गुरु को भेंट की । गुरु ने भी उससे कहा कि - हम तृण-स्वर्ण में समान इच्छावालें हैं। हम अनर्थ के हेतु इसकी इच्छा नहीं करतें हैं । इस प्रकार कहकर और राख मँगाकर उन्होंने उस रस को वहाँ डाला । पुनः उस कूपिका को निज मूत्र से भरकर उसे वापिस दिया । उसने भी योगीन्द्र को नमस्कार कर गुरु द्वारा कीये वृत्तान्त का निवेदन किया । क्रोध से लाल हुए योगी ने सोचा कि- अहो ! यें अविवेकी हैं, इस प्रकार से कहकर उस कूपिका को शिला-तल के ऊपर फोड़ दी । क्षणान्तर में ही वह शिला स्वर्णमयी हुई । उसे देखकर वह कौतुक सहित विचारने लगा I 1 मैं हजार क्लेशों से रस-सिद्धि की हैं । वह स्वभाव से ही इनके स्व-शरीर में ही रही हुई हैं । तब नागार्जुन ने कल्पवृक्ष के समान उन श्रीगुरु की वंदना, स्तवन आदियों के द्वारा चिर समय तक
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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