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________________ १५६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ तेंतीसवाँ व्याख्यान अब सातवें सिद्ध-प्रभावक को प्रकाशित करतें हैं इस जिन-शासन में अंजन, चूर्ण, लेप आदि सिद्ध योगों से युक्त सातवाँ प्रभावक होता हैं। भावार्थ श्रीपादलिप्त आचार्य के दृष्टांत से दृढ़ किया जाता है____ अयोध्या में नागहस्ती सूरि के समीप में प्रतिमा श्राविका के पुत्र ने आठवें वर्ष में दीक्षा ग्रहण की । एक बार श्रावक के गृह से काँजी को लेकर क्षुल्लक गुरु के आगे स्थित हुए । गुरु ने उससे कहा किहे वत्स ! तुम आलोचना को जानते हो ? क्षुल्लक ने कहा कि- हे भगवन् ! थोड़े प्रयोजन के लिए क्रिया के योग में मर्यादा के साथ में जो, वैसे मैं आलोचना को जानता हूँ, आप सुनो आम के समान ताम्र नेत्रोंवाली, पुष्प के समान दाँतपंक्तिवाली ऐसी नव वंधूने मुझे जल-पात्र से अपुष्पित नव चावलों की काँजी दी हैं। उस शृंगार-वाक्य से रुष्ट हुए गुरु ने पालित्त कहा । (प्रलिप्त अर्थात् प्रकर्ष से लिप्त )। क्षुल्लक गुरु के चरण में नमस्कार कर विज्ञप्ति करने लगाआप प्रसन्न होकर एक अधिक मात्रा दें, जिससे मैं पालित्त होऊँ । उसके विज्ञान से प्रसन्न हुए गुरु ने क्रम से पादलेप विद्या के साथ उसको पादलित नामसे सूरि पद से विभूषित किया । स्वयं ही विहार करते हुए खेटकपुर में आये । वहाँ उन्होंने जीवाजीव उत्पत्ति प्राभृत, निमित्त प्राभृत, विद्या प्राभृत और सिद्धि प्राभृत, इन चारों को प्राप्त की । सूरि उस विद्या से प्रति-दिन पाँच तीर्थों में जिनों को नमस्कार कर पश्चात् भोजन करतें थें । एक बार सूरीश ढंकपुर में गये । वहाँ पर उन्होंने बहुत जनों
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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