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उपदेश-प्रासाद - भाग १
___१५५ वेश्या रागवती और सदा ही उसका अनुसरण करनेवाली है, छह रसों से युक्त भोजन हैं । महल गृह हैं, मनोहर शरीर हैं, अहो! नव्य वय का संगम है । मेघ से काले रंग का यह काल है, फिर भी जिसने आदर से काम को जीत लिया है, ऐसे युवति के प्रतिबोध में कुशल श्रीस्थूलभद्र मुनि को मैं वंदन करता हूँ।
यह सुनकर राजा के समीप में रहे हुए ईर्ष्यालु ब्राह्मणों ने
कहा
जो पानी और पत्तों का आहार करनेवालें विश्वामित्र, पराशर आदि थे, वें भी अत्यंत सुंदर स्त्रियों के मुख रूपी कमल को देखकर ही मोह को प्रास हुए थे । जो मानव दूध,दही और घी से युक्त आहार का भोजन करतें हैं उनको इन्द्रिय का निग्रह कैसे ? अहो ! दंभ देखो।
यहाँ सूरि ने उत्तर दिया कि- हे राजन् ! शील के पालन में आहार और नीहार कारण नहीं हैं किन्तु मनोवृत्ति ही कारण हैं । क्योंकि
बलवान्, हाथी-सूअर के मांस का भोजन करनेवाला सिंह संवत्सर में एक बार रतिको करता हैं । कर्कश शिला कण मात्र का भोजन करनेवाला कबूतर प्रति-दिन कामी होता है, यहाँ कौन-सा हेतु हैं ?
यह सुनकर कुवादी श्याम मुखवाले हुए । इत्यादि अनेक प्रबंध कुमारपाल राजा के चरित्र से जानें ।
सूरि भी पृथ्वी ऊपर अनेक भव्यों को प्रतिबोधित कर और जिन-मत की प्रभावना कर स्वर्ग में गये ।
जिन-धर्म रूपी जगत् में विद्या के एक कान्ति, सूर्य के सदृश अंधकार का नाश करनेवाले, चौलुक्य वंश में सिंह सदृश राजा को प्रतिबोधित करनेवाले श्रीहेमचन्द्र नामक गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में तृतीय स्तंभ में बत्तीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।