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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ १५४ सो भैंसे मारे जाते हैं, अष्टमी में आठ सो और नवमी में नव सो। नहीं तो वेंविघ्न-कारिणी होंगी । राजा ने गुरु के पास में जाकर कहा । गुरु ने कहा-जिस दिन में जितने भैंसे मारे जाते हैं, उतने ही उस देवी के आगे स्थापित कर कहे कि- हे देवी ! शरण से रहित यें पशु तुम्हारें आगे स्थापित कीये गये हैं, अब हे देवी जो सही हो, वह आदरित किया जाय । राजा ने गुरु के द्वारा कहे हुए को किया । देवीयों ने एक भी पशु का भक्षण नहीं किया । नवमी की रात्रि में हाथ में त्रिशूल से युक्त कंटेश्वरी साक्षात् होकर कहने लगी कि- हे राजन् ! तुमने क्रम से आये आचार को छोड़ दिया हैं । राजा ने कहा-जीवित मैं चीटी को भी नहीं मारता हूँ। रुष्ट होकर देवी त्रिशूल से राजा को मस्तक पर मारकर तिरोहित हो गयी। उस दिव्य घात से राजा कुष्ठ रोग से पीड़ा को प्राप्त होने लगा । मैं अग्नि में प्रवेश करता हूँ इस प्रकार से कहते हुए राजा को निषेध कर उदयन ने सूरि से उस स्वरूप का निवेदन किया । सूरि के द्वारा दीये गये अभिमंत्रित पानी के छिड़काव से राजा का शरीर स्वर्ण कान्तिवाला हुआ। __ प्रातः काल में गुरु वंदन के लिए जाते हुए राजा ने धर्मशाला के प्रवेश में स्त्री के करुण स्वर को सुना । रात्रि के समय में देखी गयी उस देवी को पहचानकर, सूरि से कहा कि- हे पूज्य ! स्तंभ से बद्ध इसे आप छोड़ दो । गुरु ने कहा कि- हे राजन् ! इसके पास कोई याचना करो । राजा ने अठारह देशों में जीव रक्षा के लिए नगररक्षकपने की याचना की । देवी के द्वारा स्वीकार करने पर बंधन रहित हुई वह राज-भुवन के द्वारा पर स्थित हुई । अब एक बार सूरि ने राज-सभा में स्थूलभद्र का वर्णन किया, जैसे कि
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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