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उपदेश-प्रासाद
भाग १
१५३
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देवबोधि ने कहा- यदि तुम विश्वास नहीं करते हो तो मूर्त्तिमंत और यहाँ पर आये हुए महेश्वर आदि तीनों देवों को और अपने पूर्वजों को स्व- मुख से पूछो । इस प्रकार से कहकर विद्या की शक्ति से उन्हें दिखाया । देवों ने और पूर्वजों ने कहा कि- हे वत्स ! तेरे द्वारा देवबोधि का वचन करना चाहिए । उससे आश्चर्य से युक्त हुआ राजा जड़ के समान हुआ । तब उदयन मंत्री ने कहा कि - हे राजन् ! हेमसूरि भी अनेक विज्ञान में कुशल हैं । प्रातः काल में देवबाधि आदि से घेरे हुए राजा ने सूरि को नमस्कार किया । सूरि पाँचों भी पवनों को रोककर और आसन से थोड़ा उच्छ्वास लेकर व्याख्यान प्रारंभ किया। उतने में पूर्व में संकेत कीये गये शिष्य ने नीचे से आसन को ले लिया । सभी विस्मय को प्राप्त हुए । सूरि ने कहा- मेरे देवों को देखों, ऐसा कहकर श्रीचौलुक्य को कमरे में ले आये । वहाँ समवसरण में स्थित चौबीस जिनेन्द्रों को और चौलुक्य आदि इक्कीस स्व- पूर्वजों से पूजित कीये जातें जिनेश्वरों को देखकर नमस्कार किया। उन्होंने भी कहा- दया-धर्म को स्वीकार करनेवाले तुम ही विवेकी हो । यें तेरे गुरुदेव हैं । उनके द्वारा कहे हुए की आराधना करो । पूर्वजों ने भी कहा कि - हे वत्स ! तेरे द्वारा जिन धर्म के आदरण से हम सुगति पात्र हुए हैं और इस प्रकार की महर्द्धि को भज रहे है । ऐसा कहकर वें तिरोहित हुए । तब दोलायमान मन से युक्त राजा ने सूरि से तत्त्व पूछा । सूरि ने कहा कि - हे राजन् ! पूर्व में उसके द्वारा दिखाया गया और यह मेरे द्वारा दिखाया गया इन्द्रजाल और आकाश-जुगाल के समान हैं । जो तुझे सोमेश्वर ने कहा था वही तत्त्व हैं । उसने मिथ्यात्व को छोड़ दिया और क्रम से द्वादश व्रत लिये ।
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एक दिन आश्विन मास के आने पर देवी के पूजारियों ने राजा से कहा कि हे नरेन्द्र ! कुल देवीयों की बलि के लिए सप्तमी में सात
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