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उपदेश-प्रासाद
भाग १
सूरि के द्वारा प्रदत्त श्लोक राजा को दिया । जैसे कि
देखने की इच्छावाला भिक्षु आया हुआ है और निवारण करने से हाथ में चार श्लोकों को रखकर द्वार पर स्थित हैं, क्या वह आये अथवा चला जाये ?
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तब राजा ने इस प्रकार से प्रति - श्लोक को भेजा
दस लाख द्रव्य और चौदह शासन दीये जायेंगे। हाथ में चार श्लोकों को रखकर वह भिक्षु आय अथवा चला जाय ।
सभा के मध्य में गये सूरि ने दीये हुए आसन में स्थित होकर चारों श्लोक चारों दिशाओं में पढे -
आपने इस अपूर्व धनुर्विद्या को कहाँ से सीखी है ? जिससे कि बाणों का समूह संमुख होता हैं और धनुष की डोरी अन्य दिशा में जाती हैं। मुख में सरस्वती स्थित हैं और कर-कमल में लक्ष्मी स्थित हैं । हे राजन् ! क्या कीर्ति कुपित हो गयी हैं जिससे कि देशान्तर में चली गयी हैं । तुम सर्वदा सभी को देते हो, इस प्रकार जो तुम पंडितों के द्वारा स्तुति कीये जाते हो, वह मिथ्या हैं क्योंकि नारीयों ने तुम्हारें पीठ को प्राप्त किया हैं और पर - स्त्रियाँ वक्ष को प्राप्त नहीं करती हैं । हे राजन् ! चार समुद्रों में डूबकी लगाने से शीतल हुई के समान तेरी कीर्ति गर्मी के लिए सूर्य - मंडल में गयी है ।
यह सुनकर संतुष्ट हुए राजा ने कहा- आप चारों दिशाओं के राज्य को ग्रहण करो । गुरु ने कहा- हम निर्ग्रन्थों को राज्य से क्या कार्य हैं ? तब राजा ने कहा- तो आप क्या चाहते हो ? गुरु ने कहाओंकारपुर में शिव मंदिर से ऊँचा और चार द्वारवाले जिन-मंदिर को कराओ । वहाँ पर पार्श्वनाथ प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराओ । राजा ने सिद्धसेन का कहा कराया ।
सूरीन्द्र दक्षिण में प्रतिष्ठान में आये । स्व-आयु का अंत
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