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उपदेश-प्रासाद - भाग १ कहा- वाद दो ! सूरि ने कहा- ऐसा ही हो ! परंतु यहाँ पर कोई सभ्य नहीं हैं और उनके बिना वाद में कैसे जय-पराजय की व्यवस्था हो? तब गर्व से उच्छृखल सिद्धसेन ने कहा- ये गोपालक हो ! गुरु ने कहा-तो तुमे जो इष्ट है उसे कहो ! सिद्धसेन ने ऊँच स्वर में तर्क से कठिन संस्कृत में अत्यधिक वाद किया । क्रम से गोवालियों ने कहा कि- अहो ! यह वाचाल है और कुछ भी नहीं जानता हैं, केवल भैंस के समान पूत्कार करते हुए कानों को पीड़ित कर रहा हैं । उससे इसको धिक्कार हो । हे वृद्ध ! तुम कानों को सुखकारी ऐसा बोलो । अब अवसर को जाननेवाले सूरि गण-छंद से नृत्य के लिए अधिक ही ताली दान पूर्वक इस प्रकार से कहने लगे
नहीं मारो, नहीं चोरी करो, पर-दार गमण का निवारण करो, अल्प में से भी अल्प दो और इस प्रकार से टग-टग कर स्वर्ग में जाओं । गेहूँ, गोरस, गोरड़ी, गज, गुणि-जन और गान, जो यहाँ पर यें छह ग-ग मिलें तो स्वर्ग से क्या काम है ? चूड़ा, चमरी, चूंदड़ी, चोलि, चरणो और चीर-ये छह च-च सदा ही शोभते हैं और ये शरीर के सौभाग्य हैं।
उस छन्द के दोधक शब्द से नाचते हुए गोवालियों ने कहाइस सूरि ने इस ब्राह्मण को जीता हैं । इस प्रकार से गोपालकों के द्वारा निन्दित कीयें गयें सिद्धसेन ने कहा कि-हे भगवन् ! आप मुझे प्रव्रजित करो । गुरु ने कहा- हम दोनों वादकरने के लिए राज-सभा में जायें । वें दोनों वहाँ पर गयें । वहाँ पर भी जीते जाने पर सत्य प्रतिज्ञाधारी उसने दीक्षा ग्रहण की । क्रम से सिद्धसेन दिवाकर इस प्रकार से बिरुद को देकर सूरि ने स्व-पद के ऊपर स्थापित किया ।
भव्य-प्राणी रूपी कमलों को विकसित करते हुए और अवन्ती में आते हुए वादीन्द्र-सूरि ऐसे सिद्धसेन को देखकर उन